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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
इसी प्रकार दो अन्य युगों का वर्णन किया और अन्त में-
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा।[1]
तामसी गुण भरपूर हो, किंचित् राजसी गुण भी उसमें हो, चारों ओर वैर और विरोध हो तो ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। जब तामसी गुण कार्य करता है तो मनुष्य में आलस्य, निद्रा, प्रमाद का बाहुल्य होता है। वह कर्तव्य जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं हो सकता, निषिद्ध कर्म जानते हुए भी उससे निवृत्त नहीं हो सकता। इस प्रकार युगधर्मों का उतार-चढ़ाव मनुष्यों की आन्तरित योग्यता पर निर्भर है। किसी ने इन्हीं योग्यताओं को चार युग कहा है, तो काई इन्हें ही चार वर्ण का नाम देता है, तो कोई इन्हें ही अति उत्तम, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट चार श्रेणी के साधक कहकर सम्बोधित करता है। प्रत्येक युग में इष्ट साथ देते हैं। हाँ, उच्चश्रेणी में अनुकूलता की भरपूरता प्रतीत होती है, निम्न युगों में सहयोग क्षीण प्रतीत होता है।
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