मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 45

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

7. अभिमान कैसे छूटे ?

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साधक को इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अपने में जो कुछ विशेषता आयी है, वह खुद कि नहीं है, प्रत्युत भगवान् से आयी है। इसलिये उस विशेषता को भगवान् की ही समझे, अपनी बिलकुल न समझे। अपने में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह प्रभु की दी हुई है- ऐसा दृढ़तापूर्व मानने से ही अभिमान दूर हो सकता है।

मैं जैसा कीर्तन करता हूँ, वैसा दूसरा नहीं कर सकता; दूसरे इतने हैं, पर मेरे जैसा करने वाला कोई नहीं है- इस प्रकार जहाँ दूसरे को अपने सामने रखा कि अभिमान आया! साधक को ऐसा मानना चाहिये कि मैं करने वाला नहीं हूँ, प्रत्युत यह तो भगवान् की कृपा से हो रहा है। जो विशेषता आयी है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है। अगर व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उस पर मेरा अधिकार चलता। ऐसा मानने से ही अभिमान से छुटकारा हो सकता है।

भगवान् की कृपा है कि वे किसी का अभिमान रहने नहीं देते। इसलिये अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है। भगवान् विशेष कृपा करके चेताते हैं कि तू कुछ भी अपना मत मान, तेरा सब काम मैं करूँगा। भगवान् अभिमान को तोड़ देते हैं, उसको ठहरने नहीं देते- यह उनकी बड़ी अलौकिक, विचित्र कृपा है।

जिसमें अभिमान रह जाता है, वह राक्षस हो जाता है। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, दन्तवक्त्र, शिशुपाल आदि सब में अभिमान था। अभिमान के कारण वे किसी को नहीं गिनते। भगवान् को भी नहीं गिनते! उनके अभिमान को दूर करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं और कृपा करके उनका नाश करते हैं। वास्तव में भगवान् मनुष्य को नहीं मारते हैं, प्रत्युत उसके अभिमान को मारते हैं। जैसे फोड़ा हो जाता है तो वैद्य लोग पहले उसको पकाते हैं, फिर चीरा लगाते हैं। ऐसे ही भगवान् पहले अभिमान को बढ़ाते हैं, फिर उसका नाश करते हैं। इस विषय में वे किसी का कायदा नहीं रखते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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