मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 46

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

7. अभिमान कैसे छूटे ?

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भगवान् का स्वभाव बड़ा विचित्र है। दूसरे मनुष्य तो हमारा कुछ भी उपकार करते हैं तो एहसान जनाते हैं कि तेरे को मैंने ऊँचा बनाया! पर भगवान् सब कुछ देकर भी कहते हैं- ‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! भगवान यह नहीं कहते कि मैंने तेरे को ऊँचा बनाया है, प्रत्युत खुद उसके दास बन जाते हैं। इतना ही नहीं, भगवान उसको पता ही नहीं चलने देते कि मैंने तेरे को दिया है। मनुष्य के पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ है, वह सब भगवान् का ही दिया हुआ है। वे इतना छिपकर देते हैं कि मनुष्य इन वस्तुओं को अपना ही मान लेता है कि मेरा ही मन है, मेरी ही बुद्धि है, मेरी ही योग्यता है, मेरी ही सामर्थ्य है, मेरी ही समझ है। यह तो देने वाले की विलक्षणता है कि मिली हुई चीज अपनी ही मालूम देती है। अगर आँखें अपनी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो? आँखों में कमजोरी आ गयी तो उसको ठीक कर लो। शरीर अपना है तो उसको बीमार मत होने दो, मरने मत दो।

देने वाले कि इतनी विचित्रता है कि वे यह जनाते ही नहीं कि मेरा दिया हुआ है। इसलिये मनुष्य मान लेता है कि मैं समझदार हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं लेखक हूँ आदि। वह अभिमान कर लेता है कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना भजन करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना पाठ करता हूँ आदि। विचार करना चाहिये कि यह किस शक्ति से कर रहा हूँ? यह शक्ति कहाँ से आयी है? अर्जुन वही थे, गाण्डीव धनुष और बाण भी वही थे, पर डाकू लोग गोपियों को ले गये, अर्जुन कुछ नहीं कर सके- ‘काबाँ लूटी गोपिका, वे अर्जुन वे बाण’। अर्जुन ने महाभारत-युद्ध में विजय कर ली तो यह उनका बल नहीं था, प्रत्युत जो उनके सारथि बने थे, उन भगवान श्रीकृष्ण का बल था। गीता में भगवान् ने कहा भी है- ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’[1] ‘ये सभी मेरे द्वारा पहले से मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम निमित्तमात्र बन जाओ।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 11। 33

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