मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 59

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

9. साधक कौन?

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भगवान कहते हैं- ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिंना’[1] ‘यह सब संसार मेरे अव्यक्त (निराकार)-स्वरूप से व्याप्त है।’ जिसकी आकृति होती है, उसको ‘मूर्ति’ कहते हैं और जिसकी कोई भी आकृति नहीं होती, उसको ‘अव्यक्तमूर्ति’ कहते हैं। जैसे भगवान् अव्यक्तमूर्ति हैं, ऐसे ही साधक भी अव्यक्तमूर्ति होता है- ‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते’[2]

साधक शरीर नहीं होता- ऐसी बात ग्रन्थों में आती नहीं, पर वास्तव में बात ऐसी ही है। साधक भाव शरीर होता है। वह योगी होता है, भोगी नहीं होता। भोग और योग का आपस में विरोध है। भोगी योगी नहीं होता और योगी भोगी नहीं होता। साधक को भी काम भोगबुद्धि अथवा सुखबुद्धि से नहीं करता, प्रत्युत योगबुद्धि से करता है। समता का नाम ‘योग’ है- समत्वं योग उच्यते’[3] समता भाव है। अतः साधक भाव शरीर होता है।

स्थूल शरीर परिक्षण बदलता है। ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिस क्षण में शरीर का परिवर्तन न होता हो। परमात्मा की दो प्रकृतियाँ हैं। शरीर अपरा प्रकृति है और जीव परा प्रकृति है। परा प्रकृति अव्यक्त है और अपरा प्रकृति व्यक्त है। सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त हैं, बीच में व्यक्त हैं और अन्त में अव्यक्त हैं[4]। स्वप्न आता है तो पहले जाग्रत है, बीच में स्वप्न है और अन्त में जाग्रत है। जैसे मध्य में स्वप्न है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मध्य में व्यक्त हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 9। 4
  2. गीता 2। 25
  3. गीता 2। 48
  4. अव्यक्तदीनि भूतानि व्याक्तमाध्यानि भारत। अव्यक्तनिधानान्येव तत्र का परिदेवना

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