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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
2. कामना, जिज्ञासा और लालसा
मनुष्य के भीतर जो इच्छा रहती है, उसके तीन भेद हैं- कामना, जिज्ञासा और लालसा। सांसारिक भोग और संग्रह की ‘कामना’ होती है, स्वरूप (निर्गुण तत्त्व)– की ‘जिज्ञासा’ होती है और भगवान् (सगुण तत्त्व)– की ‘लालसा’ होती है। संसार की जो कामना है, वह भूल से पैदा हुई है। कारण कि हमारे में एक तो परमात्मा का अंश है और एक प्रकृति का अंश है। परमात्मा का अंश जीवात्मा है- ‘ममैवांशो जीवलोके’ और प्रकृति का अंश शरीर है- ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’[1]मैं क्या हूँ?– इस प्रकार स्वरूप (जीवात्मा) – को जानने की इच्छा ‘जिज्ञासा’ है और भगवान् को कैसे मिलें? उनमें प्रेम कैसे हो?– इस प्रकार भगवान् को पाने की इच्छा ‘लालसा’ है। जिज्ञासा और लालसा – ये दोनों इच्छाएँ अपनी हैं, पर कामना अपनी नहीं है। कारण कि जिज्ञासा और लालसा सत्-तत्त्व की होती है, पर कामना असत् की होती है। कामनाएँ शरीर को लेकर होती हैं। बहुत-से भाई-बहन शरीर को मुख्य मानते हैं। पर वास्तव में शरीर मुख्य नहीं है, प्रत्युत जो शरीर में अपना रहना मानता है, वह शरीरी मुख्य है। शरीर तो कपड़े की तरह है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ो को छोड़कर नये कपड़े पहन लेता है, ऐसे ही वह (शरीरी) पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीर धारण कर लेता है[2]। शरीर हरदम बदलता है। इसलिये शरीर को लेकर जो कामनाएँ होती हैं, वे अपनी नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 15/7।
- ↑
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवामि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शारीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।(गीता 2/22)
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