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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
12. अक्रियता से परमात्म प्राप्ति
परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण संसार में समान रीति से परिपूर्ण हैं- ‘मया ततमिदं सर्वम्’।[1], ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’।[2] अगर कोई उसकी प्राप्ति करना चाहे तो वह कुछ भी चिन्तन न करे। जो सर्वव्यापक है, उसका चिन्तन हो ही नहीं सकता। कुछ भी चिन्तन न करने से हमारी स्थिति स्वतः परमात्मा में ही होती है। इसलिये परमात्म प्राप्ति का ख़ास साधन है- कुछ भी चिन्तन न करना; न परमात्मा का, न संसार का, न किसी का। साधक जहाँ है, वहीं स्थिर हो जाय; क्योंकि वहीं परमात्मा हैं। क्रिया तो उसके लिये होती है, जो देश, काल, वस्तु आदि की दृष्टि से दूर हो। परन्तु जो सब जगह है, सब समय है, सब वस्तुओं में है, सब व्यक्तियों में है, सब अवस्थाओं में है, सब परिस्थितियों में है, सब घटनाओं आदि में है, उसकी प्राप्ति के लिये क्रिया की क्या जरूरत? चुप होना, शान्त होना, कुछ न करना एक बहुत बड़ा साधन है, जिसका पता बहुतों को नहीं है। कुछ करने से संसार की प्रप्ति होती है और कुछ न करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है। संसार का स्वरूप है- क्रिया (श्रम) और परमात्मा का स्वरूप है- क्रिया (विश्राम)। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रिय-तत्त्व ज्यों-का-त्यों रहता है। इतना ही नहीं, उस अक्रिय-तत्त्व से ही सम्पूर्ण क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं और उसी में लीन होती हैं। क्रिया से शक्ति का ह्रास होता है और अक्रिय होने से शक्ति का संचय होता है। इसलिये साधक प्रत्येक क्रिया से पहले और क्रिया के अन्त में शान्त (चिन्तन रहित) हो जाय। पहले शान्त होकर सुनेगा तो सुनी हुई बात विशेष समझ में आयेगी, पढ़ेगा तो पढ़ी हुई बात विशेष समझ में आयेगी। अन्त में शान्त होने से सुनी हुई या पढ़ी हुई बात को धारण करने की शक्ति आयेगी। क्रिया करने से विषमता आती है और अक्रिय होने से समता आती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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