भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 95

Prev.png

भागवत धर्म मीमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.7) शौंच तपस् तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च समत्वं द्वंद्व-सज्ञयोः॥[1]

शौचम्- यानि स्वच्छता। यदि इस गुण की कसौटी पर हम अपने समाज को कसें, तो अनुभव आएगा कि हमारा समाज बहुत गंदा है। यूरोप की तुलना में तो बहुत ही अधिक गंदा है। वैसे तो हमारे धर्मशास्त्र में व्यक्तिगत स्वच्छता के नियम बताये गये हैं कि स्नान करो, हाथ-पाँव, मुँह धोओ, आदि। उनका पालन हम करते ही हैं। बाकी सब गंदा है। पानी गंदा, रास्ते गंदे, पाखाना गंदा। नदी में स्नान के लिए जाएंगे तो उसे भी गंदा कर देंगे। तीर्थ-स्थान तो गंदे-से-गंदे होंगे ही। हमारे सामाजिक जीवन में शौच की कमी है। भगवान ने धर्म के तौर पर यह बात कही है। अंग्रेजी में कहा है : क्लीनलीनेस इज नेक्स्ट टू गॉडलीनेस अर्थात ‘स्वच्छता का स्थान ईश्वरीयता के ठीक बाद है।’ यह बात सही है। जहाँ स्वच्छता होती है, वहाँ चित्त एकदम प्रसन्न हो जाता है और चित्त प्रसन्न होता है, तो बुद्धि में विचार भी उत्तम सूझते हैं।


शौचम् के बाद है तपः। अपने यहाँ अनेक प्रकार के तप माने गए हैं। कोई शीर्षासन लगाकर उलटा खड़ा होगा और कहेगा तप कर रहा हूँ। कोई पानी में खड़ा रहेगा और कहेगा कि तप कर रहा हूँ। पर भागवत का तप इस प्रकार का नहीं। यहाँ तप का अर्थ है समाज शुद्धि, शरीर-शुद्धि, चित्त-शुद्धि आदि के लिए की गयी मेहनत। ऐसे ही झाड़ू लगाना, शरीर श्रम करना भी तप होगा। उसे हम टालते हैं, तो समाज में अनेक प्रकार की समस्याएँ खड़ी होती हैं।


उपनिषद में यहाँ तक कहा है कि तुम्हें यदि कोई जिज्ञासा है, तो तप करो। भृगु अपने पिता वरुण ऋषि के पास गये और बोले कि ‘मुझे ब्रह्मज्ञान समझाइए।’ उन्होंने कहा : तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व- ‘तप करो और तप से ब्रह्म जानने की कोशिश करो, क्योंकि तुम्हारे लिए तपो ब्रह्मेति- तप ही ब्रह्म है।’ भृगु ब्रह्म जानना चाहते हैं और वरुण कहते हैं कि तप ही ब्रह्म है। फिर स तपोऽतप्यत- उन्होंने तप किया। स तपः तप्त्वा- तपश्चर्या करके, अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्- ज्ञान हुआ कि अन्न ब्रह्म है। गुरु ने एकदम नहीं बताया कि अन्न ब्रह्म है, तप करके ज्ञान हुआ है। किंतु भृगु को ध्यान में आया कि इससे बढ़कर भी कोई ब्रह्म है। फिर वे गुरु के पास गये तो गुरु ने पुनः कहा : तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति। फिर से उन्होंने तप किया। उन्हें मालूम हुआ : प्राणों ब्रह्मेति व्याजानात्- प्राण ही ब्रह्म है। उसके बाद फिर गुरु के पास गये और उनके आदेशानुसार तपस्या करके जाना : तपो ब्रह्मेति- तप ही ब्रह्म है। पुनः गुरु के आदेश से तप किया। फिर मालूम हुआ : मनो ब्रह्मेति व्यजानात्- मन ब्रह्म है। फिर गुरु के पास गये बार-बार गुरु के पास गये और बार-बार गुरु ने कहा : तपसा ब्रह्म विजिज्ञास्व। उपनिषद में भी यह बार-बार लिखा है। अंत में भृगु को विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्- विज्ञान ब्रह्म है, ऐसा ज्ञान हुआ। तब उनका समाधान हुआ। इसी का नाम है ‘भार्गवी-वारुणी विद्या’। भृगु शिष्य का नाम है और वरुण है, गुरु का नाम। गुरु के नाम से विद्या प्रसिद्ध होनी चाहिए। लेकिन शिष्य ने तप किया- मेहनत की, इसलिए यह ‘भार्गवी-वारुणी विद्या’ कहलायी। यह विद्या गुरु-शिष्य दोनों के नाम से प्रसिद्ध है। सैषा भार्गवी वारुणी विद्या, परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता- यह विद्या हर एक के हृदय में प्रतिष्ठित है। ऐसा है तपस्या का आनंद।

महाभारत में व्यास ने लिखा है :

'सुखार्थिनः कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।

‘जो सुखार्थी है, उसे विद्या कहाँ से मिलेगी और जो विद्यार्थी है, उसे सुख कहाँ से मिलेगा?’ यानि विद्यार्थी को सुख नहीं। विद्या का आनंद तो है, किंतु बाहरी सुख नहीं। तकलीफ भोगनी पड़ेगी। लेकिन आजकल तो पिता जी लड़के को ‘होस्टल’ में रखना चाहते हैं, तो पहले वहाँ क्या-क्या ‘फैसिलिटीज़’ (सुविधाएँ) हैं, यह देखते हैं। भगवान कृष्ण के पिता ने कृष्ण को गुरु के पास भेजा। राजा का लड़का था। गुरु के घर उसे एक गरीब ब्राह्मण के लड़के के साथ जंगल से लकड़ी लाने का काम मिला। लेकिन पिता ने कोई शिकायत नहीं की, क्योंकि विद्या इसी प्रकार प्राप्त की जाती है। आज तो जो भी परिश्रम है, सारा शिक्षक को ही करना पड़ता है। विद्यार्थी कुर्सी पर बैठकर आराम से विद्या हासिल करते हैं।


एक राजकुमार यूक्लिड के पास भूमिति सीखने के लिए आया। यूक्लिड दूसरे विद्यार्थियों के साथ उसे भी सिखाने लगा। राजकुमार बोला : मैं तो राजा का लड़का हूँ, मुझे सिखाने का कोई अलग तरीका होना चाहिए। तब यूक्लिड ने कहा : देअर इज़ नो रॉयल रोड टू ज्यामिट्री- भूमिति के लिए कोई राजमार्ग नहीं है। सार यह कि तप के बिना विद्या नहीं मिलती।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.3.24

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः