भागवत धर्म मीमांसा2. भक्त लक्षणदेखने में ऐसा लगता है कि भक्तों का दूसरा दर्जा कठिन नहीं है। किंतु वह भी सरल बात नहीं है। उसमें ईश्वर को प्रेम देने की बात कही है। इस पर सवाल आएगा कि हमारे जो निकट संबंधी हैं, उनके लिए प्रेम होना चाहिए या नहीं? सच पूछें तो हमारा प्रेम उन्हीं में बँटा हुआ है। किंतु वहाँ हमें आसक्ति है। तो, पहले वह आसक्ति हटानी पड़ेगी। मतलब यह कि जिस पर हमारा प्रेम है, उसे ईश्वर की भावना से देखा जाए। इसके लिए क्या करना होगा? उस व्यक्ति की सेवा करनी होगी। सेवा लेनी नहीं होगी। सेवा लेते हैं, तो हम लोग भोग रहे हैं, ऐसा होगा। भोग भोगना प्रेम नहीं। दूसरी बात, संबंधियों, रिश्तेदारों पर हक़ माना जाता है। हक़ की यह भावना भी हटानी होगी। पति-पत्नी, पिता-पुत्र आदि रिश्तों में कामना का अंश होता है। इसलिए वह प्रेम भक्ति में मान्य नहीं। निष्काम प्रेम ही भक्ति को मान्य होता है। मित्र समानशील होते हैं, एक साथ खेलते हैं, उनमें मैत्री होती है, प्रेम बनता है। वैसा ही यहाँ कहा है कि भक्तों के साथ हमें मैत्री करनी चाहिए। मैत्री के लिए क्या करना होगा? आदर-सत्कार की बात अलग है और मैत्री ज़रा कठिन है। भक्तों के साथ मैत्री करनी है, तो हमें भी भक्त बनना पड़ेगा।
मुझे लगा कि यह बात ज़रा साफ होनी चाहिए, क्योंकि द्वितीय श्रेणी में सफ़र करनी है, तो उसके लिए कितना खर्चा पड़ेगा, यह भी तो देख लेना होगा। उतने पैसे हमारी जेब में हों, तभी द्वितीय श्रेणी में सफ़र कर सकेंगे, नहीं तो तृतीय श्रेणी है ही। फिर तीसरे दर्जे की बात जो बतायी है कि मूर्ति, मंत्र, चिह्न, पुस्तक आदि के लिए विशेष भाव है, पर प्रत्यक्ष भक्त आ जाए तो उस पर कोई परिणाम नहीं होता, वह आरंभमात्र है। बच्चों को सिखाते समय चित्र दिखाते हैं, वैसा ही वह केवल आरंभ है। कुछ लोगों का सवाल है कि तीसरे वर्ग में जो कहा गया है, उसका स्थान मुहम्मद पैगम्बर ने नहीं माना। किंतु “मुसलमानों की ‘कुरान’ पर बहुत निष्ठा होती है।” यह उसी का एक प्रकार है। यह ठीक है कि इसका जितना स्थूलरूप अपने यहाँ है, उतना उनमें नहीं है, सूक्ष्म है। किंतु मूर्तिपूजा देहधारी के लिए टल नहीं सकती। उसके प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यह प्रकार आरंभ में होता है, इसलिए इसको नाम दिया है ‘प्राकृत’ यानि पामर। एक प्रकार से निषेध किया है और एक तरह से स्वीकृति भी दी है। [1] यानि दोनों को इकट्ठा कर लिया है, वह भागवत की खूबी है। इससे भागवत यही कहना चाहती है कि जल्दी से जल्दी दूसरे दर्जे में आ जाएं, तो अच्छा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राकृत- पामर या प्रकृतिसिद्ध। पहले अर्थ से निषेध स्पष्ट हैं। प्रकृतिसिद्ध होने से टाला नहीं जा सकता है, इसलिए स्वीकृति भी। सं.
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