1. पिंडे वाय्वग्नि-संशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम।
अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् नादान्ते सिद्ध-भाविताम्॥
अर्थः
खुली हवा और सूर्य प्रकाश से (अथवा प्राणायाम और शरीर की अग्नि से- उष्णता से) शरीर शुद्ध हो जाने पर ऊँकार की नादोपासना कर अंत में सिद्ध पुरुषों द्वारा ध्यान की हुई, हृदयकमल में स्थिर नारायण-स्वरूप मेरी श्रेष्ठ सूक्ष्म जीवन-कला का ध्यान करें।
2. स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणै: प्राकृतैरपि।
स्तुत्वा प्रसीद भगवन्! इति वंदेत दंडवत्॥
अर्थः
प्राचीन संस्कृत कवियों द्वारा रचे संस्कृत स्तोत्रों और (भक्तों द्वारा गाये गये) प्राकृत भजनों, नानाविध पौराणिक कथाओं, लौकिक स्तोत्रों एवं भजनों से मेरी स्तुति करें और फिर ‘हे भगवन, प्रसन्न हों’ ऐसी प्रार्थना कर साष्टांग प्रणाम करें।
3. मल्लिंग-मद्भक्तजन-दर्शनस्पर्शनार्चनम्।
परिचर्या स्तुतिः प्रह्व-गुणकर्मानुकीर्तनम्॥
अर्थः
मेरी मूर्ति का और मेरे भक्तों का दर्शन करें। उनका स्पर्श, सेवा शुश्रूषा और पूजा-स्तुति करें तथा नम्र भाव से मेरे गुण और कर्मों का कीर्तन करें।
4. मत्कथा-श्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव!
सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्म-निवेदनम्॥
अर्थः
हे उद्धव! मेरी (लीलाओं- दिव्य जन्म-कर्मों- की) कथाओं को सुनने की श्रद्धा रखें और निरंतर मेरा ध्यान करें। जो कुछ मिले, सब मुझे अर्पण करें और दासभाव से आत्मनिवेदन करें।
5. यद्यदिष्टतम् लोके यच्चातिप्रियमात्मनः।
तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते॥
अर्थः
संसार में जो-जो अत्यंत प्रिय है और जो स्वयं को अत्यंत प्रिय हो, वह सब मुझे अर्पण करें। ऐसा करने पर वह वस्तु अनन्त फल देनेवाली होती है। (अथवा ऐसा करना मोक्षप्रद होता है।)