भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 116

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भागवत धर्म मीमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.3) दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्र-सुखोरु-तर्षम्।
समुद्‍धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यैर्
वचोभिरासिंच महानुभाव ॥[1]

आगे उद्धव कहते हैं कि कालरूपी सर्प ने मुझे काटा है –दष्टम्। जिस बिल में साँप है, उसी बिल में आपका भक्त रहता है। अपना वर्णन कर रहे हैं कि इस संसार रूपी बिल में पड़ा हुआ और साँप से काटा हुआ मैं हूँ। मुझे क्षुद्र सुख यानि विषय-सुख की बड़ी प्यास लगी है। यह एक रूपक है। कहा जाता है कि जिस मनुष्य को साँप काटता है, उसे बहुत प्यास लगती है। वही मिसाल यहाँ दी गई है। उरु-तर्षा यानि बहुत प्यास। इसलिए हे भगवान्! समुद्धर –मेरा आप उद्धार करो। हे मन्त्र जानने वाले, मन्त्रज्ञ महानुभाव! अपने अपवर्ग्यैः वचोभिः –मुक्तिदायी वचनों से मुझ पर सिंचन करो। ‘अपवर्ग’ यानि मुक्ति। हे महानुभाव! मुझे बचाओ। साँप के काटे हुए मनुष्य को मान्त्रिक मन्त्र से ठीक करते हैं और उस समय उस पर जल छिड़कते हैं। वही मिसाल यहाँ दी गयी है और भगवान् से कहा है कि आप अपने मुक्तिदायी वचनों से मुझ पर सिंचन करें।


इन तीनों श्लोकों में अपने को बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना की गयी है और वैराग्य-ज्ञान-भक्ति की माँग भी की है। आगे के श्लोकों में भगवान उद्धव के प्रश्नों के उत्तर देंगे।

 (19.4) नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तत् ज्ञानं मम निश्चितम् ॥[2]

भगवान ज्ञान-वैराग्य समझा रहे हैं: येन ज्ञानेन ईक्षेत –जिस ज्ञान से हम देख सकेंगे। क्या देख सकेंगे? नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु –नौ अधिक ग्यारह, अधिक पाँच, अधिक तीन, यानि 28 मूलतत्त्व सब भूतों में भरे हुए हैं। ‘भाव’ यानि मूलतत्त्व। और ईक्षेत अथ एकमपि एषु –इन 28 मूलतत्त्वों में एक तत्त्व देखो। सारांश, अनन्त भूतों में 28 भाव हैं, यह ज्ञान जिससे होता है, उस ज्ञान को प्रथम जान लें। फिर उन 28 भावों में एव तत्त्व जान लें। तत् ज्ञानं मम निश्चितम् –इसी को मैं ज्ञान मानता हूँ।


यह एक प्रक्रिया है। पहले अनन्त भावों को उबाल-उबालकर यानि ओटकर 28 भाव निकाले। फिर 28 भावों को ओटकर उसका एक तत्त्व बनाया। ये 28 भाव कौन-से हैं? सांख्यशास्त्रकारों ने 25 पदार्थ माने हैं।[3] उनमें तीन गुण जोड़ दिये तो 28 हो जाते हैं। सांख्यों ने तीन गुणों को प्रकृति में माना है, यहाँ उन्हें अलग गिना गया है।


यह विषय मुझे शुष्क लगता है। मैंने पंचीकरण-प्रक्रिया भी पढ़ी है।[4] वह नीरस लगी। उसका आत्मज्ञान से कोई ताल्लुक नहीं। सृष्टि कैसे बनी, यह विज्ञान का विषय है। विज्ञान ने इस विषय में काफी खोज की है। लेकिन जिन्होंने खोज की, उन्हें आत्मज्ञान तो नहीं हुआ था। रामदास स्वामी ने कहा है :

 प्रपंची पाहिजे सुवर्ण। परमार्थी पंचीकरण ॥

अर्थात प्रपंच में सुवर्ण चाहिए, पैसा चाहिए और परमार्थ में पंचीकरण विद्या चाहिए। पाँच महाभूत, पाँच विषय, चित्त के तत्त्व आदि का शास्त्र इस पंचीकरण-विद्या में आता है। मैंने अपने लिए इसमें यह परिवर्तन कर लिया है :

प्रपंची पाहिजे अन्न। परमार्थी आत्मज्ञान ॥

उपनिषद में भी ‘अनाज बढ़ाओ’ कहा है: अन्नं बहु कुर्वीत । लेकिन भगवान ने भागवत के इस श्लोक में बड़ी कुशलतापूर्वक साधकों को निर्देश देते हुए कहा है कि ‘अनन्त का 28 करो और 28 का 1-’रिड्यूस टु वन –एक तक आओ। अनन्त भेदों से 28 भेदों तक आये, तो काम कुछ आसान बना। फिर भी ये 28 बाकी रहने पर झमेला नहीं मिटेगा, क्योंकि ‘वन वर्ल्ड’ (एक जगत) बनाना है। इसलिए भगवान ने ज्ञानमार्ग निकाला और कहा कि ’28 का 1 बनाओ।’ जिस ज्ञान से उन 28 में ‘एक’ दीखे, तत् ज्ञानं मम निश्त्तिम् –उसे मैं निश्चित ज्ञान मानता हूँ। दूध की रबड़ी बनायी, फिर रबड़ी का मावा! मतलब मावा बनाने से है।

फिर विज्ञान क्या है? भगवान कहते हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.19.10
  2. भागवत-11.19.14
  3. प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्राएँ (9), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन (11), पृथ्वी आदि पंच भूत (5) तथा सत्त्व, रज, तम ये (3) गुण : 9+11+5+3=28 ।
  4. पंजीकरण’ वेदान्तशास्त्र की प्रसिद्ध सृष्टि-प्रक्रिया है। हमें दीखने वाले पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पाँच स्थूल महाभूत कैसे बने, इसका स्पष्टीकरण करते हुए शास्त्र में बताया गया है कि मूलतः इनके पाँच बीजरूप होते हैं, जिन्हें ‘पंचतन्मात्राएँ’ या ‘सूक्ष्म भूत’ कहा जाता है। ये तन्मात्राएँ हैं :1. शब्द-तन्मात्रा, 2. स्पर्श-तन्मात्रा, 3. रूप-तन्मात्रा, 4. रस-तन्मात्रा और 5. गन्ध-तन्मात्रा। इन्हीं से स्थूल भूत उत्पन्न होते हैं। स्थूल भूत बनते समय पाँचों में एक-दूसरे के गुण या तत्त्व आ मिलते हैं। किस तरह? तो देखिये : पहले, पाँच सूक्ष्म भूतों (तन्मात्राओं) को दो हिस्सों में बाँट दें। फिर पहले पाँच हिस्सों के पुनः चार-चार हिस्से बना लें। बाद अपना हिस्सा छोड़ शेष चार भूतों के 4 चौथाई हिस्सों को जोड़ स्थूलभूत का ½भाग कर लें और उसमें अपने-अपने हिस्से का शेष आधा भाग जोड़ते जाएँ, तो पाँचों स्थूल महाभूत बन जाते हैं। इस पंचीकरण के कारण ही एक भूत में दूसरे भूत के गुण पाये जाने की उपपत्ति बैठ जाती है। - सं.

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भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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