भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 97

Prev.png

भागवत धर्म मीमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.8) सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्।
विविक्त-चीर-वसनं संतोषं येन केनचित्॥[1]

सर्वत्र आत्मेश्वरान्वीक्षाम्- आत्मा और ईश्वर को सर्वत्र देखने का अभ्यास। अपना रूप सर्वत्र भरा है, परमेश्वर का रूप सर्वत्र भरा है, यही देखने के लिए हमने समाज में जन्म पाया है, न कि एक दूसरे के विरुद्ध काम करने के लिए। इसका अभ्यास करना चाहिए।


कैवल्यम्- दुनिया में केवल हम ही हैं। सामने अनेक लोग दीखते हैं, फिर भी सर्वत्र हम ही हैं। दुनिया मानो एक दर्पण है। दर्पण में दीखने वाला रूप हमारा ही होता है। वैसे ही यह सारी दुनिया हमारा प्रतिबिम्ब है। जैसे हम हैं, वैसी दुनिया है। सारी जिम्मेवारी हमारी ही है। हम ही दुनिया में व्यवहार कर रहे हैं। इसी का नाम है ‘कैवल्य’।

अनिकेतताम्- इसका अर्थ घर छोड़ना करें तो मामला मुश्किल हो जाएगा। मतलब यह होगा कि भागवत धर्म के वरण के लिए कोई घर ही न बनाए। लेकिन ऐसी बात नहीं। अनिकेतता का अर्थ है, घर की आसक्ति न होना- गृहासक्ति न होना। गीता में भी आता है :

'अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियो नरः।

‘जो मनष्य अनिकेत है, बिना घरवाला है और स्थिरमति है यानि जिसकी बुद्धि स्थिर है, वह मुझे अत्यंत प्रिय है’- ऐसा भगवान ने गीता में कहा है। अनिकेत का दूसरा अर्थ है, सतत घूमने वाला। कहीं भी रहे, स्थान की आसक्ति न रखे- इसी का नाम है ‘अनिकेतता’।


फिर एक छोटी सी चीज है, वह भी बतायी है : विविक्त चीर-वसनम्- सादा कपड़ा पहनें। आश्यर्च की बात है कि भागवत धर्म में जहाँ आदौ मनसः असङगं जैसी बड़ी-बड़ी बातें कहीं, वहाँ ऐसी छोटी सी भी बात कही जा रही है। आज के ज़माने के अनुसार इसका अर्थ करने को कहें तो मैं यही करूँगा कि ‘खादी पहनो’। भागवत के ज़माने में तो खादी के सिवा कुछ था ही नहीं। आज तरह-तरह के कपड़ों से देह को सजाते हैं। पर भागवत कहती है कि सादे कपड़े पहनें, यानि देह को न सजायें। केवल शीत-उष्णादि से रक्षा करने के लिए कपड़ा है या है लज्जा रक्षा के लिए।


संतोषं येन केनचित्-जिस किसी स्थिति में हमें रहना पड़े, उसी में हम पराक्रम करें, शरीर-श्रम करें, प्रामाणिक धंधा करके कमाई करें और जो कुछ मिले, उसी में संतोष मानें।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.3.25

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः