भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 62

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25. सत्त्व-संशुद्धि

 
5. यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्व-कर्मभिः।
तं सत्त्व-प्रकृति विद्यात् पुरुषं स्त्रियमेव वा॥
अर्थः
जब कोई मनुष्य भक्तिपूर्वक निरपेक्ष भाव से अपने कर्मों द्वारा मेरी सेवा करता है, फिर वह भले ही स्त्री हो या पुरुष, तो उसे सात्त्विक वृत्तिवाला समझना चाहिए।
 
6. मदर्पणं निष्फलं सात्त्विकं निज-कर्म तत्।
राजसं फल-संकल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्।।
अर्थः
वर्णाश्रम विहित अपना कर्म ईश्वर को समर्पित कर दिया जाए या निष्काम भाव से किया जाए, तो वह ‘सात्त्विक’ होता है। फल की इच्छा से किया हुआ कर्म ‘राजस’ और दूसरे को कष्ट पहुँचाने की वृत्ति से किया जाने वाला कर्म ‘तामस’ होता है।
 
7. ऐघमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेघते।
असुराणां च रजसि तमस्युद्धव! रक्षसाम्।।
अर्थः
हे उद्धव! सत्त्वगुण का उत्कर्ष होने पर देवताओं का बल बढ़ता है। रजोगुण की वृद्धि से दैत्यों का और तमोगुण की वृद्धि से राक्षसों का बल बढ़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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