भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 59

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23. भिक्षु गीत

 
6. मनोवशेऽन्ये ह्यभवन् स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्
युंज्याद् वशे तं स हि देवदेवः॥
अर्थः
(बड़े-बड़े) देवगण भी मन के वश में हो गये। किंतु मन किसी के वश नहीं होता। मन बलवान से बलवान भयंकर देव है। जो मन को वश कर लेता है, वह देवों का देव है।
 
7. तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेगं
अरुं तुदं तन्न विजित्य केचित्।
कुर्वन्त्यसद्-विग्रहमत्र मर्त्यैर्
मित्राण्युदासीनरिपून् विमूढ़ा।।
अर्थः
सचमुच मन ही बहुत बड़ा शत्रु है। उसे जीतना कठिन है और उसका आक्रमण असह्य है। वह मर्मस्थल पर ही प्रहार करता है। मनुष्य को पहले इस शत्रु को जीत लेना चाहिए। लेकिन मूढ़ लोग उसे जीतने का यत्न न कर मर्त्य मनुष्यों से व्यर्थ झगड़ते रहते हैं और किसी को मित्र, किसी को उदासीन, तो किसी को शत्रु बना लेते हैं।
 
8. देहं मनोमात्रमिंम गृहीत्वा
ममाहमित्यंधधियो मनुष्याः।
ऐषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरंतपारे तमसि भ्रमन्ति॥
अर्थः
यह मनोमात्र देह पकड़कर ‘मम’ और ‘अहं’ से ग्रस्त होकर अंधबुद्धि के लोग ‘यह मैं हूँ’ और ‘यह दूसरा’ ऐसे भ्रम में पड़ते हैं और उसी से अनन्त अपार अंधकार में भटकते रहते हैं।
 
9. न केनचित् क्वापि कथंचनास्य
द्वंद्वोपरागः परतः परस्य।
यथाहमः संसृति-रूपिणः स्यात्
ऐवं प्रबुद्धो न विभेति भूतैः॥
अर्थः
संसार-ग्रस्त अहंवृत्ति को जैसे (सुख-दुख आदि) द्वंद्वों का स्पर्श होता है, वैसा परात्पर चिद् रूप आत्मा को किसी भी कारण, कहीं भी कैसा भी द्वंद्व स्पर्श नहीं होता। इस प्रकार जानने वाला विवेकी पुरुष (जड़) भूतों से नहीं डरता।
 
10. ऐतां समास्थाय परात्मनिष्ठां
अध्यासितां पूर्वतमेर् महर्षिभिः।
अहं तरिष्यामि दुरंतपारं
तमो मुकुंदांघ्रि-निषेवयैव।।
अर्थः
अत्यंत प्राचीन महर्षियों ने इस परात्म-निष्ठा का आश्रय लिया है। मैं भी उसी का आश्रय ग्रहण करूँगा और (मुक्ति और भक्ति देने वाले) मुकुंद के चरण-कमलों की सेवा द्वारा ही यह दुस्तरतम (अज्ञान सागर सहज ही) तर जाऊँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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