भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 53

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20. योग-त्रयी

 
5. स्व-धर्म-स्थो यजन् यज्ञैर् अनाशीःकाम उद्धव।
न याति स्वर्ग-नरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत्॥
अर्थः
हे उद्धव! अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार स्वधर्म में स्थिर रहकर, बिना फल और कामना के, यज्ञ से जो मेरी आराधना करेगा और दूसरा कुछ नहीं करेगा, तो वह न स्वर्ग पाएगा और न नरक में ही गिरेगा।
 
6. अस्मिन् लोके वर्तमानः स्वःधर्म-स्थोऽनघः शुचिः।
ज्ञानं विशुद्धं आप्नोति मद्भक्तिं वा यदृच्छया॥
अर्थः
इस भूलोक में रहकर ही स्वधर्म का आचरण करने वाला मनुष्य यदि निष्पाप और शुद्ध हो, तो अनायास उसे निर्मल ज्ञान या मेरी शक्ति प्राप्त होती है।
 
7. नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरु-कर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥
अर्थः
सभी देहों में श्रेष्ठ यह मनुष्य देह, मेरी अनुकूलतारूप हवा से चलने वाली, एकमात्र गुरुरूप, कर्णधार से युक्त, अत्यंत दुर्लभ, सुदृढ़ नाव के रूप में अनायास प्राप्त है। इसके सहारे जो संसार सागर पार न कर जाए, वह आत्मघातकी है।
 
8. यदाऽऽरंभेषु निर्विण्णो विरुक्तः संयतेंद्रियः।
अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः॥
अर्थः
योगी जब नये-नये सकाम कर्म प्रारंभ करने से ऊबकर विरक्त हो जाएगा, तब वह इंद्रियों का संयम कर आत्माभ्यास से अपना मन (परमात्मा में) निश्चित रूप से लगा दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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