भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 4

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1. ईश्वर-प्रार्थना

5. स्यान्नस् तवांघ्रिरशुभाशयधूमकेतुः
क्षेमाय यो मुनिभिरार्दहृदोह्यमानः।
यः सात्वतैः समविभूतय आत्मवद्भिर्
व्यूहेऽर्चितः सवनशः स्वरतिक्रमाय।।
अर्थः
तेरे चरण हम लोगों की अशुभ वासनाओं को जलानेवाला अग्नि बनें। जो मुनिजन कल्याण के लिए प्रेमार्द्र चित्त से जो अपने हृदय से लगाते हैं, आत्मवान वैष्णव भक्त स्वर्ग-सुख से परले पार की साम्ययोग सिद्धि के लिए तीनों यज्ञ-कालों में वासुदेव आदि व्यूहों (यानी स्वरूपों) में जिनका पूजन करते हैं।
 
6. यश् चिंत्यते प्रयतपाणिभिरध्वराग्नौ
त्रय्या निरुक्तविधिनेश! हविर् गृहीत्वा।
अध्यात्मयोग उत योगिभिरात्ममायां
जिज्ञासुभिः परमभागवतैः परीष्टः।।
अर्थः
हे परमेश्वर! तीन वेदों द्वारा बतायी हुई विधि के अनुसार यज्ञाग्नि में शुद्ध हाथों आहुति देते समय याज्ञिक लोग जिन चरणों का चिंतन करते हैं, उसी तरह अध्यात्मयोग से परमात्मा-माया को जानने के इच्छुक परम भगवद्भक्त योगी सभी प्रकार से जिनका पूजन करते हैं, तेरे वे चरण हमारी अशुभ वासना भस्म करने वाले अग्निरूप बनें।
 
7. पर्युष्टया तव विभो! वनमालयेयं
संस्पर्धिनी भगवती प्रतिपत्निवत् श्रीः।
यः सुप्रणीतममुयार्हणमाददन् नो
भूयात् सदांघ्रिरशुभाशयधूमकेतुः।।
अर्थः
प्रभो! भगवती लक्ष्मी आपके भक्तों ने आपको अर्पित की हुई म्लान (मुरझायी) वनमाला से सौत सा मत्सर करती है। उस सूखी वनमाला से अपना यथासांग पूजन मानने वाले आपके चरण हमारी अशुभ वासनाओं को भस्म करने के लिए अग्नि-स्वरूप हों।
 
8. केतुस् त्रिविक्रमयुतस् त्रिपतत्पताको
यस् ते भयाभयकरोऽसुरदेवचम्वोः।
स्वर्गाय साधुषु खलेष्वितराय भूमन्!
पादः पुनातु भगवन्! भजतां अघं नः।।
अर्थः
हे विश्वव्यापक परमेश्वर! तीन डगों में ही सारे त्रैलोक्य को व्याप्त करने वाला तेरा चरण एक विजय ध्वज ही है। उसे त्रिपथगा गंगा रूपी पताका है। उसे देख असुरों की सेना भयभीत होती है, तो देवों की सेना निर्भय। सज्जनों को स्वर्ग और दुर्जनों को नरक देने वाले तेरे वह चरण हम भक्तों के पापों को नष्ट कर हमें पवित्र करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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