भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 32

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11. बद्धमुक्त मुमुक्षु-साधक

13. न स्तुवीत न निंदेत कुर्वतः साध्वसाधु वा।
वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ् मुनिः।।
अर्थः
गुणदोषों से अतीत हुआ मुनि सर्वत्र समदर्शी होता है। इसलिए कोई भला-बुरा करे या बोले, तो भी वह किसी की निंदा या स्तुति नहीं करता।
 
14. न कुर्यान्न वदेत् किंचित् न ध्यायेत् साध्वसाधु वा।
आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः।।
अर्थः
वह मुनि कोई भला-बुरा कर्म नहीं करेगा या नहीं बोलेगा या नहीं सोचेगा। इस प्रकार की वृत्ति से वह आत्मानंद में मग्न रहकर और जड़वत बरताव करेगा।
 
15. ऐबं जिज्ञासयाऽपोह्य नानात्वभ्रममात्मनि।
उपारमेत बिरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे।।
अर्थः
इस प्रकार जिज्ञासा से आत्मस्वरूप पर जमे नानात्व के भ्रम को नष्ट कर सर्वव्यापी मुझ परमात्मा में शुद्ध चित्त समर्पित कर निवृत्त हो जाए।
 
16. यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम्।
मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर।।
अर्थः
यदि ब्रह्म में मन स्थिर न कर सको, तो मुझ परमेश्वर को उद्देश्य कर सभी कर्म भलीभाँति निरपेक्ष होकर करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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