भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 28

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10. आत्म-विद्या

9. तस्मात् जिज्ञासयाऽऽत्मानं आत्मस्थं केवलं परम्।
संगम्य निरसेदेतद्-वस्तुबुद्धिं यताक्रमम्।।
अर्थः
इसलिए तत्त्वजिज्ञासा से अपने में ही स्थित केवल परमात्मा को प्राप्त कर इस देह के संबंध की वस्तु-बुद्धि क्रमशः मिटाएँ।
 
10. आचार्योऽरणिराद्यः स्यात् अंतेवास्युत्तरारणिः।
तत्संधानं प्रवचनं विद्यासंधिः सुखावहः।।
अर्थः
(विद्या रूप अग्नि उत्पन्न करने के लिए) आचार्य और शिष्य ऊपर-नीचे की अरणियों (यज्ञ में अग्नि पैदा करने के लिए काम में लाये जाने वाले दो काष्ठखंड) जैसे हैं। गुरु का प्रवचन (इन दो अरणियों को मिलाने वाला) संधान है। उस संधान से निर्माण होने वाली सुखावह संधि या अग्नि है विद्या।
 
11. वैशारदी साऽतिविशुद्ध-बुद्धिर्
धुनोति मायां गुण-संप्रसूताम्।
गुणांश्च संदह्य यदात्ममेतत्
स्वयं च शाम्यत्यसमिद् यताग्निः।।
अर्थः
उस पारंगत, ज्ञानी शिष्य की वह अति विशुद्ध बुद्धि त्रिगुण से उत्पन्न माया को झटकार डालती है और जिस तरह समिधाओं को जलाकर आग अपने-आप शांत हो जाती है, उसी तरह जिन त्रिगुणों से यह दृश्य भासित होता है, उन्हें जलाकर वह विद्या स्वयं शांत हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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