9. न देयं नोपभोग्यं च लुब्धैर् यद् दुःख-संचितम्।
भुंक्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु॥
अर्थः
जिस प्रकार मधुमक्खियों द्वारा संचित मधु ( शहद ) मधु निकालने वाला चतुर मनुष्य बटोर ले जाता है, उसी प्रकार बड़े कष्ट से लोभी द्वारा संग्रहीत धन- जिसे वह न तो किसी को दे पाता है और न स्वयं ही भोग पाता है- दूसरा ही कोई हर ले जाता है।
10. यथोर्णनाभिर् हृदयात् ऊर्णां संतत्य वक्त्रतः।
तया विहृत्य भूयस् तां ग्रसत्येवं महेश्वरः॥
अर्थः
जिस तरह मकड़ी अपने हृदय से निकले ऊन ( तंतु ) को मुँह द्वारा फैलाकर उसका जाल बुनती है और कुछ देर उसी में विहार (खेल) कर पुनः उसे निगल जाती है, उसी तरह परमेश्वर भी करता है। (परमेश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है, कुछ समय तक उसमें विहार कर पुनः उसे स्व-स्वरूप में लीन कर लेता है। ईश्वर किस तरह काम करता है, इसकी शिक्षा मकड़ी से मिलती है।)
11. यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया।
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्सरूपताम्॥
अर्थः
देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भय से जिस-जिस वस्तु में बुद्धिपूर्वक अपना मन एकाग्र करता है, उन-उन पदार्थों से वह एकरूप हो जाता है।
12. कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः।
याति तत्सात्मतां राजन्! पूर्वरूपं असंत्यजन्॥
अर्थः
राजन! भृंगी द्वारा अपने घोंसले में बलात लाया हुआ कीट (भय से) उस भृंगी का ही ध्यान करता है। फलस्वरूप इसी देह में उसकी देह बदलकर उसे भृंगी का रूप प्राप्त हो जाता है।