भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 146

Prev.png

भागवत धर्म मीमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

(28.3) शोक–हर्ष–भय-क्रोध-लोभ-मोह-स्पृहादयः ।
अहंकारस्य दृश्यन्ते जन्ममृत्युश्च नात्मनः ॥[1]

शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जो इनके परिवार में हैं, सारे अहंकार को लागू होते हैं। जन्म और मृत्यु को भी उसके साथ जोड़ दिया है। पर ये सारे आत्मा को लागू नहीं होते और न देह को ही लागू होते हैं। देह और आत्मा से भिन्न एक तीसरी वस्तु है, अहंकार! उसी को यह सारा लागू होता है। अहंकार ने इन सबको पकड़ रखा है। मृत्यु से दुःख किसे हुआ! अहंकार को। आत्मा के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं।

यह सारा अज्ञानी का वर्णन हुआ। अब ज्ञानी पुरुष का वर्णन कर रहे हैं :

(28.4) अमूलमेतद् बहु-रूप-रूपितं
मनो-वचः-प्राण-शरीर-कर्म।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन
च्छित्वा मुनिर् गां विचरत्यतृष्णः॥[2]

जितने भी काम होते हैं, वे मन, वाणी, प्राण या शरीर द्वारा होते हैं। लेकिन जो भी काम होते हैं, वे निराधार हैं। उन्हें कोई आधार नहीं। इसलिए ज्ञानी उन्हें काटता है और पृथ्वी पर विचरता रहता है – मुनिः गां विचरति। ‘गाम्’ यानि पृथ्वी पर। पृथ्वी पर वह कैसे विचरता है? तृष्णारहित होकर – अतृष्णः। किन्हें काटकर विचरता है? मनो-वचः-प्राण-शरीर-कर्म च्छित्वा – मन, प्राण आदि से जो कर्म, जो हलचलें या जो अभिमान होता है, उन सबको काटकर। कैसे काटेगा? काटने का साधन कौन-सा है? ज्ञानासिना उपासनया – ज्ञानरूपी खड्ग से। शितेन – जो प्रखर या तीक्ष्ण किया हुआ है। जिस चीज पर औजार की धार-तीक्ष्ण करते हैं, उसे संस्कृत में ‘शाण’ कहते हैं। यहाँ वह शाण कौन-सा है? उपासनया – उपासना रूपी शाण पर ज्ञान-खड्ग को धार लगाकर, सारे कर्मों को काटते हैं। वे कर्म कैसे होते हैं? अमूल यानि निर्मूल। जब वह तृष्णारहित होकर घूमता है, तो उसके द्वारा दुनिया के बहुत बड़े-बड़े काम बनते हैं, क्योंकि उसके अपने कामों का तो प्रश्न ही नहीं रहता। वह स्वयं तृष्णारहित है। वह समझता है कि यह सारा भासमान है, मृग-जलवत है। इतना सारा ग्रामदान का काम चला। यदि भूकम्प आ जाए, तो सब जमीन अन्दर चली जायेगी और एक बड़ा समुद्र बन जायेगा। इसलिए ग्रामदान का काम करने वाला व्यक्ति भी अगर उसमें आसक्ति रखेगा, तो डूब जायेगा। इसीलिए मुनि तृष्णारहित होकर विचरता है। इस कर्म के रूप बहुत होते हैं – बहु-रूप-रूपितम्। फिर भी मुनिः विचरति अतृष्णः

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.28.15
  2. भागवत-11.28.17

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः