भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 144

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भागवत धर्म मीमांसा

10. पूजा

(27.9) तस्मात् त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥[1]

यहाँ भगवान साक्षात आदेश दे रहे हैं। उपदेश और आदेश, दो प्रकार हैं। उपदेश सर्वसामान्य के लिए होता है, सबके लिए कहा जाता है। आदेश यानि आज्ञा, किसी खास व्यक्ति को दी जाती है। यहाँ उद्धव को आदेश दिया है। हे उद्धव! तू सब छोड़ दे। क्या छोड़ना है? चोदनाम् – आज्ञा या विधि। प्रतिचोदनाम् – निषेध। प्रवृत्ति भी छोड़ दे और निवृत्ति भी छोड़ दे। छोड़ने के लिए और क्या कहा? तू जो कुछ सुन चुका है, वह भी छोड़ दे और सुनने योग्य भी छोड़ दे – श्रोतव्यं श्रुतमेव च। मतलब, सुनने लायक छोड़ दे और सुना हुआ भी छोड़ दे। सब छोड़कर, -

(27.10) मामेकमेव शरणं आत्मानं सर्व-देहिनाम् ।
याहि सर्वात्म-भावेन मया स्या ह्यकुतोभयः ॥[2]

मामेकमेव शरणं आत्मानं याहि – सब प्राणियों के आत्मा मात्र मुझ भगवान की शरण जा। पूरे भक्तिभाव से उनकी शरण में जा – सर्वात्मभावेन। तो, तू मेरे बल पर निर्भय हो जायेगा। तुझे किसी प्रकार का डर नहीं रहेगा। भगवान की भक्ति निर्भय बनाती है – अकुतोभयः

‘कुरान शरीफ’ में कहा है : ला खौफुन अलैहिम व ला हुम यह् जनून – जो परमात्मा के मित्र हैं, उनको न भय है, न शोक। यही गीता में कहा है : मामेकं शरणं व्रज। इसीलिए असम प्रदेश में ‘शरण’ शब्द चलता है - ‘एक शरण’ धर्म है। कन्नड़ में बसवेश्वर के वचनों में भी यह शब्द मिलता है। ‘इस्लाम’ का एक अर्थ ‘शरण जाना’ भी है। उनका दूसरा अर्थ है ‘शान्ति’। ‘एक शरण’ की बात इसलिए चली कि भगवान बुद्ध ने ‘तीन शरण’ कहे थे : धम्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छाणि, संघं शरणं गच्छामि। पर यहाँ मामेकमेव शरणम् कहा है।

महाराष्ट्र के एकनाथ महाराज ने पूरी भागवत पर नहीं, केवल एकादश स्कंध पर ही भाष्य लिखा है। आपने भाष्य में उन्होंने कहा है, सारा भागवत एक बाजू रख दें और केवल दो ही श्लोक ले लें, तो काफी हैं। एक तो यही श्लोक[3] और दूसरा चौदहवें अध्याय का चौथा [4] श्लोक, ये दो श्लोक उन्होंने महत्त्व के माने हैं। उस दूसरे श्लोक में विशेष बात यही कही है कि भगवान भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं कि भक्तों की पद-धूलि से पवित्र हो जाऊँ। इस ख़्याल से यह तो अतिशयोक्ति की हद है। लेकिन ये दो श्लोक एकनाथ महाराज ने महत्त्वपूर्ण माने हैं। ध्यान देने की बात है कि भगवान ने गीता में सर्वधर्मान् परित्यज्य कहकर समाप्त कर दिया, पर भागवत के इस श्लोक में उन्होंने उद्धव को क्या-क्या छोड़ना, यह विस्तार से बताया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.12.14
  2. भागवत-11.12.15
  3. भागवत-11.12.15
  4. निरपेक्षं मुनि, शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणुभिः ॥

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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