भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 143

Prev.png

भागवत धर्म मीमांसा

10. पूजा

(27.7) योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः।
महर् जनस् तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः॥[1]

कोई योगी यानि कर्मयोगी है, जो उत्तम कर्म करता है। कोई उत्तम संन्यासी है, जो अच्छा न्यास करता है। यहाँ तीनों अवस्थाएँ दीखती हैं। योगी यानि गृहस्थ मान सकते हैं, तपस्वी और संन्यासी इन तीनों को बहुत अच्छी गति मिलेगी। कौन-सी गति मिलेगी? उन्हें महर्लोक, जन-लोक, तपोलोक और सत्य-लोक मिलेगा। भूः यानि पृथ्वी, भुवः यानि अन्तरिक्ष, स्वः यानि आकाश – ये तीन लोक तो हम जानते ही हैं। यहाँ और चार लोक बताये हैं : महः, जनः, तपः, सत्यम्। कह रहे हैं कि योगी, तपस्वी, संन्यासियों को महः, जनः, तपः, सत्यम् ये लोक मिलेंगे। लेकिन जो मेरे भक्त हैं, उन्हें मेरी ही गति मिलेगी – भक्तियोगस्य मद्गतिः


प्रश्न यह है कि आप क्या चाहते हैं? महर्, जनस्, तपस्, सत्यम् ये लोक चाहते हैं या भगवान के पास जाना? भक्त-योगी के लिए बताया कि वे मेरे पास आयेंगे। भागवत की यह विशेषता है कि वह भक्ति पर जोर देती है। शेष योगियों के लिए दूसरी गतियाँ हैं। योगी का अर्थ निष्काम कर्मयोगी भी हो सकता है, ध्यानी भी हो सकता है। उनके लिए बड़ी-बड़ी उत्तम गतियाँ हैं। लेकिन भक्त भगवान के पास पहुँचेगा। आप इनमें से जो भी गति पसन्द करें, विषयासक्ति में डूबे न रहें तो बस है।

(27.8) देवर्षि-भूताप्त-नृणां पितृणां
न किंकरो नायमृणी च राजन् !
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुंदं परिहृत्य कर्तम्॥[2]

हे राजन! मनुष्य के सिर पर ऋण होते हैं। जन्मतः मनुष्य ऋणी होता है। वे ऋण मनुष्य को अदा करने होते हैं। एक है देवों का ऋण, दूसरा है ऋषियों का ऋण और तीसरा है पितरों का ऋण। ये तीन प्रकार के ऋण तो सब जानते हैं। इनके अलावा यहाँ प्राणियों का ऋण – भूतों का ऋण कहा है। गाय हमें दूध देती है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। कुत्ता चोरों से बचाता है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। फिर आप्तों का ऋण माना है। माता-पिता, बन्धुजन, ये सारे आप्त हैं। कोई डॉक्टर हमारी सेवा करता है, तो उसका भी ऋण है। तीसरा है समाज का ऋण। नृणाम् – सारे मनुष्यों का। इतने सारे ऋण मनुष्यों के सिर पर रहते हैं। लेकिन यहाँ भगवान कह रहे हैं कि जिसने अपने को भगवान की शरण में कर लिया, उस पर कोई ऋण नहीं। वह किसी का किंकर यानि सेवक नहीं या किसी का ऋणी नहीं –न किंकरो नायम् ऋणी च। भगवान मुकुन्द की शरण में जो पहुँच गया, उस पर किसी का ऋण नहीं। शरण्यं मुकुंदं शरणं गतः यः – जो शरणागतों के प्रतिपालक मुकुन्द की शरण में सब प्रकार से पहुँच जाए। कर्तम् यानि गड्ढा। परिहृत्य कर्तम् – गड्ढे को छोड़कर। यह सारा संसार एक बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें लोग गिरते हैं। उसे बचकर, छोड़कर जो सब प्रकार से भगवान की शरण पहुँच जाए।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.24.14
  2. भागवत-11.5.41

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः