भागवत धर्म मीमांसा9. पारतन्त्र्य-मीमांसा(24.3) यावदस्यास्वतंत्रत्वं तावदीश्वरतो भयम् । अस्वतन्त्रत्वम् यानि पारतन्त्र्य। जब तक पारतन्त्र्य रहेगा, तब तक ईश्वर का भय भी रहेगा – यावत् अस्य अस्वतंत्रत्वं तावत् ईश्वरतः भयम्। वैसे ईश्वर का भय रखना आवश्यक भी है। फिर कहा : ये एतत् समुपासीरन् – जो गुण-वैषम्य की उपासना करेंगे, वे शुचार्पिताः मुह्यन्ति – शोकवश होकर मोहित होंगे। जब तक गुण-वैषम्य रहेगा, तब तक ईश्वर भी हाथ में नहीं आयेगा। परमात्मा के पास पहुँच भी नहीं सकेंगे। (24.4) काल आत्माऽऽगमो लोकः स्वभावो धर्म ऐव च। फिर तरह-तरह के ईश्वर बनेंगे। लोग तरह-तरह के ईश्वर को मानने लगेंगे। कौन-कौन-से ईश्वर? काल-ईश्वर, आत्मा-ईश्वर, आगम-ईश्वर, लोक-ईश्वर, स्वभाव-ईश्वर, धर्म-ईश्वर। परमात्मा को अनेक प्रकार के ईश्वर मानकर पहचानेंगे। कब तक? जब तक गुण-वैषम्य है, तब तक – गुणव्यतिकरे सति।
भगवान कह रहे हैं : मां बहुधा प्राहुः – मुझ (परमात्मा) को भूलकर लोग मुझे अनेक नाम देते हैं। अलग-अलग आत्मा देखते हैं, तो स्वयं द्वेष खड़े हो जाते हैं। फिर अनेक ईश्वर खड़े हो जाते हैं। यह कब तक जारी रहेगा? जब तक गुण-वैषम्य रहेगा। तो, इसके लिए क्या करना चाहिए? तुकाराम महाराज कहते हैं : आणिकांचे कानी। गुणदोष मना नाणी ॥ यानि ‘दूसरों के गुण-दोष कान पर मत आने दो।’ गुण-दोष सुनो ही मत। कहीं कान पर आ ही जाएँ, तो मन में मत आने दो। सार यह कि गुण-दोषों की ओर न देखें। यदि गुण-दोष की झंझट में पड़ेंगे, तो अनेक आत्मा बन जायेंगे। फिर पारतन्त्र्य बना ही रहेगा और कोई-न-कोई ईश्वर सिर पर चढ़ बैठेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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