भागवत धर्म मीमांसा8. संसार-प्रवाह(22.3) सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्धत् स्रोतसां तदिदं जलम् । हमें भास होता है कि वही दीप जल रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है। पुराना जाता है और नया आता है। अर्चषाम् यानि ज्वालाएँ। ज्वालाएँ जल रही हैं, उनमें हमें सातत्य का भास होता है। वे सतत जलती हैं। हमें लगता है कि दीपक जल रहा है। गंगा का पानी बह रहा है, लेकिन वही पानी नहीं बहता। पुराना पानी जाता और नया आता है, लेकिन हमें भास होता है कि वही पानी बह रहा है। इसी तरह ‘यह वही आदमी है’ ऐसा मिथ्याभास हमें होता है। आदमी वही पुराना नहीं है, वह बदल गया है। अभी एक, दूसरे क्षण में दूसरा, तीसरे क्षण में तीसरा, ऐसा सतत बदलता है। इसलिए कभी किसी से गुस्सा नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने अपराध किया, वह तो खतम हो गया। दूसरे क्षण वह रहा ही नहीं।
अब सवाल पूछा जायेगा कि मनुष्य का अखण्ड अनुसन्धान न हो, तो कर्मफल का क्या होगा? व्यवहार भी खतम होगा। एक आदमी था, वह एक होटल में भोजन के लिए गया। अच्छा भोजन कर लिया। भोजन का पैसा देना था। वह मैनेजर के पास गया और कहने लगा कि ‘संसार का चक्र तो चलता ही रहेगा। आदमी मरता है और फिर जन्म पाता है। इसलिए मैं आगे आने वाला हूँ, तब तुम्हारे पैसे दूँगा।’ मैनेजर ने कहा : ‘आप कहते हैं, वह बात तो ठीक है। लेकिन इसके पहले आप जो खाये थे, उसका पैसा तो दे दीजिये, उसे लिये बगैर मैं आपको छोड़ूँगा नहीं।’ समझना चाहिए कि भागवत का अक्षरशः अर्थ करेंगे, तो व्यवहार ही नहीं चलेगा। यहाँ जो कहा है, वह दर्शन के तौर पर नहीं। उसका अर्थ यह है कि मनुष्य में परिवर्तन हुआ होगा, वह जानने की वृत्ति होनी चाहिए। ‘वही यह मनुष्य है’ – यह भाषा, वाणी - गीर् और यह बुद्धि - धीर् व्यर्थ ही है। कहा गया है कि सात साल में शरीर का खून बदल जाता है। पहले जमाने में तपस्या बारह साल की मानी जाती थी यानि उस अवधि में मनुष्य पूरा बदल जाता है, ऐसा माना जाता था। भागवत में जो ‘प्रतिक्षण बदल’ की बात कही गयी, वह उत्कट भावना के कारण है।
पूछा जायेगा कि मनुष्य बदलता है, तो कर्म-फल कौन भोगेगा? समझने की बात है कि कर्म-फल से हम तुरन्त मुक्त हो सकते हैं, यदि अहंकार से मुक्त हो जाएँ। लेकिन मनुष्य अपने अहंकार से चिपका रहता है। अहंकार छूट जाता है, तो पुराने पाप खतम हो जाते हैं। लेकिन अहं कहाँ छूटता है? ‘यह मैंने किया, वह मैंने किया’ – इस तरह का अहंकार मनुष्य को रहता ही है। इसलिए उसे पाप-पुण्य का फल भोगना ही पड़ता है। अहंकार को तोड़ सकें, तो सबसे मुक्त हो सकते हैं। अतः अहंकार-मुक्ति ही मुख्य बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.22.44
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