भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 133

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भागवत धर्म मीमांसा

7. वेद-तात्पर्य

वेदान् अपि संन्यसति

‘वेदों को भी छोड़ देता है!’

इस तरह वेद हमसे एक कठोर काम करवाता है। जिसे हमने पहले पकड़ा था, फिर उस पर उपासना की, उसे सँजोया-सँभाला, अन्त में उसी को वह छोड़ने के लिए कहता है। यदि आपकी वैसी तैयारी न होगी और केवल पहली ही आज्ञा मानें, तो आप आज्ञाधारक सिद्ध न होंगे। वेद अन्तिम अनासक्ति की बात कहता है। भगवान कहते हैं कि अन्त में तुम्हें अनासक्ति सध गयी, तो परमात्मा की प्राप्ति होगी। वे पहले गृहस्थाश्रम की आज्ञा देता है। गृहस्थाश्रम करवा लेता है। फिर कहता है, ‘अब तुम्हारा लड़का बड़ा हो गया, उस पर सारा भार सौंपकर तुम परिचर्या करो।’ उसे वानप्रस्थाश्रम की आज्ञा देता है। इस तरह वेद एक-एक चीज पकड़ने के लिए कहता है और बाद में सब छोड़ने के लिए कहता है। वेद नहीं चाहता कि आप आख़िर तक उसी की आज्ञा का पालन करें। वह कहता है कि आप स्वयं वेद बनें।

(21.60) शब्द-ब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि।
श्रमस् तस्य श्रम-फलो ह्यधेनुमिव रक्षतः॥[1]

शब्द-ब्रह्म में निष्णात हुआ, पर परब्रह्म में निष्णात नहीं हुआ, तो क्या होगा? शब्द-ब्रह्म का ‘गाऊन’ पहन लिया। वास्तव में डिग्री देते गाऊन पहनाना तो पश्चिम का रिवाज है। वहाँ ठंड होती है, इसलिए गाऊन पहनाते हैं। पर हमारे यहाँ विद्या पूर्ण होने पर शिष्य को बिदा किया जाता तो गुरु अपने हाथों से उसे स्नान करवाता था, क्योंकि हमारा मुल्क गरम है। यह स्नान कराते थे, तो माना जाता था कि वह उस शास्त्र में निष्णात हो गया – स्नातक हो गया। आजकल जो डिग्री पाते हैं, वे अपने-अपने विषय में निष्णात होते हैं। पर परब्रह्म में निष्णात न हुए, तो क्या हुआ? शब्द-ब्रह्म में निष्णात है और परब्रह्म में निष्णात नहीं, तो शब्द-ब्रह्म के लिए जो श्रम किया, उसका फल श्रम ही मिला। उसने परमात्मा को नहीं पहचाना। श्रम का फल नहीं मिला, श्रम ही मिला। ठीक वैसे ही, जैसे वन्ध्या (बाँझ) गाय का रक्षण करते हैं, तो उसका फल श्रम ही होता है, उससे तनिक भी दूध, अमृत नहीं मिलता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.11.18

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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