भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 131

Prev.png

भागवत धर्म मीमांसा

7. वेद-तात्पर्य

(21.5) मां विदत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम् ।
ऐतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम् ।
मायामात्रं अनूधात्ते प्रतिषिद्ध्य प्रशाम्यति ॥[1]

जितने भी शब्द हैं, उनका अन्तिम अर्थ भगवान ही है। लोक अलग-अलग तरह से भगवान की प्रार्थना करते हैं। कोई कहता है, ‘तू घर है।’ वेद में तो आया है कि ‘भगवान, तू मेरी रजाई है। जीर्ण मनुष्य के लिए जैसे वस्त्र प्रिय होता है, वैसा ही तू मेरे लिए प्रिय है।’ कोई कहता है : ‘हे भगवन! तू मेरा जीवन है। मैं प्यासा हूँ, तो मेरे लिए तू पानी बन गया!’ मतलब यह कि जितने भी शब्द हैं, अन्त में वे भगवान के ही अर्थ में हैं। गरमी के दिनों में आप कह सकते हैं कि ‘भगवन! तू मेरा पंखा है।’ ऐसा कौन-सा शब्द है, जो भगवान को लागू नहीं होगा?

इसीलिए वैदिक-पद्धति में कहा गया है कि कुल शब्द भगवद-वाचक हैं। हर एक शब्द परमात्म-वाचक है। यानि वह परमात्मा की एक लंबी मालिका है। हर एक शब्द का अपना गौण अर्थ तो है ही। लेकिन वेदों को तो भगवान के मनन के सिवा दूसरी कोई रुचि (इंटरेस्ट) ही नहीं – सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति। तुकाराम महाराज कहते हैं :

तुका म्हणे चवी आले। जें का मिश्रिले विट्ठले॥

‘जिसमें भगवान-रूपी मिश्रण है, ऐसा जो भी अन्न हम लेते हैं, उसमें स्वाद आ जाता है।’ इसीलिए यहाँ भगवान कहते हैं कि जो भी शब्द है, वे सारे मेरे ही नाम हैं।

भगवान कहते हैं कि वेद यदि विधान करता है, तो मेरा ही करता है : मां विधत्ते। यहाँ ‘विधान’ का विशेष अर्थ है। वेद में जो आज्ञाएँ आती हैं, जो करने की बात कही गयी है, उसे ‘विधान’ कहते हैं। भगवान कहते हैं कि ‘वेद जो कर्म करने के लिए कहता है, वह मेरी ही उपासना के लिए कहता है।’ वैसे कर्म अनेक होते हैं। एक ही कर्म से भगवान की उपासना होती है, ऐसा नहीं। भगवान कहते हैं कि वे सारे भिन्न-भिन्न कर्म मेरे लिए ही करने हैं।

भिधत्ते – अभिधान यानि देवताओं के नाम। अग्नि, वायु, इन्द्र, सोम, आदित्य, सविता, इस तरह सौ-सवा सौ देवताओं के नाम वेद में आये हैं। लेकिन भगवान कह रहे हैं कि वे सारे मेरे ही नाम हैं। ये सारे देवता गुणांश हैं। एक-एक गुण को लेकर एक-एक देवता बना है। वैराग्य का देवता अग्नि है। इन्द्र यानि दर्शन-शक्ति। वरुण यानि संयम की शक्ति। सविता यानि प्रेरक शक्ति। इस तरह एक-एक देवता में एक-एक गुण का दर्शन होता है। मनुष्यों के अनेक नाम रखे जाते हैं, लेकिन वे भी भगवान के ही नाम हैं।

‘कुरान’ में भी भगवान के अनेक नाम आये हैं। लेकिन उससे गलतफहमी नहीं होती, क्योंकि वहाँ स्पष्ट कहा गया है कि ‘अल्लाह के सिवा और देवता नहीं है।’ उनके गुण अनेक हैं। ‘रहमान’ यानि दयालु। ‘करीम’ यानि उदार। ‘अकबर’ यानि बड़ा। एक ही अल्लाह के ये अनेक रमणीय नाम हैं। एक बार मुहम्मद पैगम्बर से पूछा गया : ‘आप कभी अल्लाह कहते हैं, कभी रहमान कहते हैं, इसका मतलब क्या है?’ उन्होंने जवाब दिया : ‘जो अल्लाह है, वही रहमान है और जो रहमान है, वही अल्लाह है।’ वैसे ही, भगवान यहाँ कहना चाहते हैं कि जो इन्द्र है वही चन्द्र है, जो चन्द्र है वही वायु है। इसलिए यद्यपि वेद में अनेक देवताओं के नाम आते हैं, फिर भी उनसे गलतफहमी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे भगवान के ही नाम हैं।

कुल-के-कुल वेद का इतना ही अर्थ है कि वह खुद ही विकल्प खड़े करता और फिर उनका निरसन कर देता है। उपासना के लिए उन्हें खड़ा करता और फिर कहता है कि उनका निरसन करो।

बचपन में हमें एक बात से बड़ा दुःख होता था। हमारे दादा जी गणेश जी की मूर्ति बनाते थे। वह मूर्ति चन्दन की होती थी। मैं छोटा बच्चा था, तो चन्दन घिसने के लिए मुझे ही कहा जाता था। काफी चन्दन घिसना पड़ता, तब उस चन्दन की मूर्ति बनती। फिर चौदह दिन उसकी पूजा होती और आख़िर में उसका विसर्जन हो जाता था। हमें इससे बड़ा दुःख होता था। इतना चन्दन घिसकर मूर्ति बनायी, चौदह दिन उसकी पूजा-उपासना की और अन्त में उसे डुबो दिया। इसे ‘आवाहन-विसर्जन’ कहते हैं। पर समझने की बात है कि यदि ऐसा न करें, तो मूर्ति ही भगवान बन जाए और भगवान का मूल स्वरूप भुला जाए।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.21.43

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः