भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 127

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भागवत धर्म मीमांसा

7. वेद-तात्पर्य

(21.3) वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसंगोऽर्पितमीश्वरे ।
नैष्कर्म्यां लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः॥[1]

वेदोक्तमेव कुर्वाणः – वेद में कहा गया कर्म है वेदोत्त कर्म। भिन्न-भिन्न गुणों के अनुसार अनेक प्रकार के कर्म वेद ने बताये हैं। दुनिया में अनेक प्रकार के गुण हैं। उन्हें देखकर भगवान ने कर्म बताये हैं। ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’ का अर्थ है, काम न करते हुए केवल चिन्तन से ही सेवा करना – ऐसी मन की स्थिति। गीता ने इस स्थिति को ‘परम-सिद्धि’ कहा है : नैष्कर्म्यसिद्धि परमाम्

दवा के साथ ही होमियोपैथी पथ्य भी बताती है। वैसे ही वेद भी बताता है। वेद का पथ्य है – अनासक्ति। कर्म के फल के विषय में अनासक्त रहना और कर्म का सम्बन्ध ईश्वर के साथ जोड़ना – इन दो पथ्यों का पालन करते हैं, तो वेदोत्त कर्म करते हुए भी नैष्कर्म्यसिद्धि मिलेगी।

अब सवाल आयेगा कि वेदवाक्यों में कर्मों के फल भी बताये हैं। फिर फल छोड़ने के लिए आप कैसे कहते हैं? भगवान कहते हैं : ‘वेद में जो फलश्रुति है, वह रोचनार्थ है।’ यानि कर्म में रुचि पैदा करने के लिए है।

सूरदास ने एक भजन गाया है – मैया कबहुँ बढ़ेगी चोटी? कृष्ण दूध नहीं पी रहे थे, मैया यशोदा आग्रह कर रही थी तो कृष्ण ने पूछा : ‘मैया, दूध पीने से क्या होगा?’ उसने कहा : ‘तेरी चोटी बढ़ेगी।’ सूरदास ने तो एक विनोद किया है। लेकिन वेद की युक्ति मिथ्या नहीं होती। आपको कर्म की प्रेरणा मिले, इसीलिए वेद में कर्म-फलश्रुति कही गयी है।

मनुस्मृति में आया है : ‘सुबह-शाम सन्ध्या करनी चाहिए।’ उसकी फलश्रुति बतायी गयी - ‘दीर्घायु’। यह फलश्रुति मिथ्या नहीं। दीर्घजीवी होंगे, यह बात सही है। सन्ध्या करने के लिए प्रातःकाल में जल्दी उठना होगा और इसीलिए जल्दी सोना पड़ेगा। सन्ध्या के समय चित्त एकाग्र करना होगा, विकारों को हटाना होगा। यह सारा करेंगे, तो निःसन्देह आरोग्य बढ़ेगा। इसलिए यह वाक्य मिथ्या नहीं हो सकता, यह सही है। दीर्घजीवी होने के दूसरे भी अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन यह भी एक कारण है। इसका उद्देश्य यह है कि भगवान की धारणा की जाए। सूर्यनारायण भगवान का प्रतीक है : सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ।

सारांश

वेद ने कर्म करने के लिए जो कहा है, उसका उद्दिष्ट परमार्थ दर्शन ही है। उसके लिए लोगों में रुचि पैदा हो, इसलिए फलश्रुति कही गयी। पर यदि मनुष्य उसी से चिपका रहेगा, तो उसे आरोग्य मिलेगा, लेकिन परमात्म-दर्शन नहीं। यदि वह परमात्म-दर्शन की दृष्टि रखेगा, तो उसे परमात्म-दर्शन तो मिलेगा ही आरोग्य भी मिलने वाला है। यह अक्ल की बात है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए।

यहाँ एक विचार की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूँ। माना जाता है कि मनुष्य ध्यान करने के लिए बैठा, तो वह आध्यात्मिक कार्य करने बैठा। और कोई काम करेगा तो माना जायेगा कि वह व्यावहारिक काम कर रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत11.3.46

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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