भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 117

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भागवत धर्म मीमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.5) ऐतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत् ।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम् ॥[1]

एकेन येन न तथा –एक ज्ञान ऐसा हो, जिससे सृष्टि के त्रिगुणात्मक भावों को हम देख सकें और यह भी देखें कि सारा मामला मिथ्या है। न तथा –वास्तविक नहीं है। यह जानना ही विज्ञान होता है। ज्ञान होता है, लेकिन उसमें तथ्य नहीं, यह मालूम होना ही विशेष ज्ञान या विज्ञान है अर्थात अनुभव-ज्ञान। साइन्स को भी ‘विज्ञान’ कहते हैं। उसका अर्थ है, विविध ज्ञान।


स्थिति-उत्पत्ति-अप्ययान् –सचमुच यह जन्मा और मरा, बीच में कुछ काम भी किया – यह जानते हुए भी ‘यह सही नहीं है’ ऐसा जानना विज्ञान है। इसी ज्ञान को, इसी समझ को ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह है आत्म-साक्षात्कार!


बड़ों-बड़ों के चरित्र होते हैं –‘इसने यह काम किया, उसने वह।’ लेकिन एक दिन पृथ्वी कम्पायमान हुई, तो सब खतम! तब वह क्या काम आयेगा? इतिहास, भूगोल या ग्रामदान-कार्य भी इसी तरह का है। यह कोई काल्पनिक चीज नहीं, होने वाली, वास्तविक है।


ऐसी अनेक पृथ्वियाँ सृष्टि में हैं, करोड़ों की तायदाद में हैं। नये-नये ग्रह-तारे बन रहे हैं, तो कुछ खतम हो रहे हैं। उनमें कौन बड़ा और कौन छोटा? इसलिए समझना चाहिए कि परमात्मा की लीला चल रही है। इसमें जो काम हमें मिला है, उसे हम करते हैं। पर उसकी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।


जयपुर में मैंने एक प्रदर्शिनी देखी थी। उसमें गोबर के बहुत सुन्दर केले बनाये थे। वहाँ मतलब केला खाने से नहीं, उसे देखने से था। गोबर का केला कौन खायेगा? वैसे ही हम जो काम करते हैं, उसमें खाने से मतलब नहीं – यह ज्ञान हो जाए तो वह आत्मानुभव है, जिसे ‘विज्ञान’ कहा है। स्थिति, उत्पत्ति और अप्यय यानि लय – ये त्रिगुणात्मक भाव बदलते रहें, लेकिन इनमें तथ्य नहीं है। न तथारूपेण पश्येत् एकेन ज्ञानेन –एक ही ज्ञान होता है, तो ‘न तथा’ दृष्टि से हम देखते हैं। मृगजल का समुद्र लहरें मार रहा है। लेकिन हम जानते हैं कि यह मृगजल ही है, वास्तव में समुद्र ही।


यह बात हिन्दुस्तान के बहुतों के कानों तक पहुँच गयी है, फिर भी लोग आसक्ति में पड़े रहते हैं। विदेश के एक भाई मुझसे मिलने आये थे। वे कह रहे थे : ‘मेरी समझ में नहीं आता था कि भारत में जो साधु-सन्त हो गये, उन्होंने संसार को मिथ्या क्यों कहा। पर हिन्दुस्तान में आने के बाद यह चीज मेरे ध्यान में आयी। यहाँ के लोग अपने भाई-बहन, माता-पिता आदि परिवार में अत्यन्त आसक्त हैं। सन्तों को उन्हें उनसे छुड़ाना पड़ा। हमारे यहाँ तो माता-पिता का एक लड़का अमेरिका में, एक इंग्लैंड में, तो एक जापान में, इस तरह चलता है। बारह-बारह साल तक पिता-पुत्र का मिलन नहीं होता।’


उस भाई के इस कहने में तथ्य है। यहाँ तो यह हालत है कि 80 साल की बूढ़ी माँ अपने 50 साल के लड़के की चिन्ता करती है। चाहती है कि मैं अपने बेटे का दर्शन करूँ। ऐसी स्थिति होने के कारण ही सन्तों ने संसार को मिथ्या कहा। यह आसक्ति तोड़ने के लिए सन्तों ने जोर-जोर से कहा। लेकिन इतना कहने पर भी क्या आसक्ति टूटी? इसलिए हमें समझना चाहिए कि संसार की किसी भी चीज में तथ्य नहीं। यह जानना ही ज्ञान यानि ‘विज्ञान’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.19.15

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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