भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 101

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भागवत धर्म मीमांसा

4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

(11.2) शोकमोहौ सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च मायया।
स्वप्नो ययाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर् न तु वास्तवी॥[1]

शोकमोहौ सुखं दुःखं देहोत्पत्तिश्च माययाअर्जुन को मोह हुआ था। उसकी बुद्धि पर मोह के पटल छा गये थे और उसी के कारण उसे शोक हुआ था। अन्ततः वह स्वयं भगवान से कहता है कि ‘अब मेरा मोह दूर हो गया।’ शोक और मोह ही संसार का रूप हैं। दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख सतत आते-जाते रहते हैं। वे प्रातिभासिक हैं।


अभी हम बाहर खुली हवा में बैठे हैं तो सुख का अनुभव करते हैं। अन्दर जाएँगे तो गर्मी के कारण दुःख होगा। बाहर धूप बढ़ जाए तो यहाँ दुःख होने लगेगा और अन्दर जाएँगे तो सुख होगा। वस्तुतः वह है ही नहीं, हमारी अपेक्षा से हुआ करता है। तरकारी में नमक कम हुआ तो एक को अच्छी नहीं लगती। ज़्यादा हुआ तो दूसरे को अच्छी नहीं लगती। मैंने नमक खाना छोड़ दिया तो तरकारी कैसी लगी? तरकारी, तरकारी जैसी लगी। इन्द्रियों की रचना ही ऐसी है कि इधर ज्यादा हुआ तो अच्छा नहीं लगता, उधर कम हुआ तो वह भी नहीं चलता। सुख-दुःख इन्द्रियों के कारण होते हैं। देह की उत्पत्ति माया के कारण है। वह भी प्रातिभासिक है।


भगवान् ने स्वप्न की मिसाल दी है : स्वप्नो यथाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर् न तु वास्तवो – स्वप्न में आप कश्मीर गये। जागृत होने पर कश्मीर तो आपके पास कहीं है नहीं। यानि स्वप्न काल्पनिक है। आत्मनः ख्यातिः –अपनी कल्पनामात्र है। संसार-व्यवहार स्वप्नवत है, वह वस्तुस्थिति नहीं है। लालबहादुर शास्त्री जी गये। जिस दिन वे गये, उस दिन दिनभर उन्होंने काम किया। परिवारवालों से फोन पर बातें कीं। ‘कल अमुक निश्चित समय पर दिल्ली पहुँचूँगा’ कहा। फिर सो गये, बीच में उठे और चले गये। ताशकन्द से दिल्ली आने में हवाई जहाज से चार घण्टे लगते हैं, लेकिन आठ मिनट के अन्दर वे परलोक चले गये। इसलिए समझना चाहिए कि रहना नहिं देश बिराना है। यह सारा स्वप्न-जैसा ही है। इतना ही अन्तर है कि निद्रा में स्वप्न थोड़ी अवधि के लिए होता है, जबकि यह स्वप्न 60-70 साल लम्बा चलता है। इसीलिए वास्तविक-सा लगता है।


जैसे जगने के बाद स्वप्न मिथ्या मालूम होता है, वैसे ही मृत्यु के बाद जीवन का स्वप्न भी मिथ्या मालूम पड़ता है। मृत्यु के बाद और जन्म के पहले अनन्तकाल पड़ा है। बीच में 60-70 साल की थोड़ी-सी अवधि हमें मिली थी। अनन्तकाल में यह यह 60-70 साल की अवधि शून्यवत है। वेदान्त जो यह बोल रहा है, वही अब गणित भी बोलने लगा है। ‘रेडियो एरट्रानॉमी’ का शास्त्र अभी नया विकसित हुआ है। वह कहता है कि सृष्टि में अनन्त ग्रह हैं। इसलिए तुम्हारा जीवन शून्य है। भगवान भी कहते हैं कि संसार वास्तविक नहीं, काल्पनिक है।

फिर हमें वास्तविक क्यों लगता है? भगवान इसका कारण बतलाते हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.11.2

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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