ज्ञानेश्वरी पृ. 385

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥43॥

हे देव! अब आपकी वास्तविक महिमा मेरी समझ में पूरी तरह से आ गयी है। आप ही इस चराचर जगत् के जन्मस्थान हैं; आप ही हरि और हर इत्यादि समस्त देवताओं के परम देवता हैं। वेदों को भी आपसे ही ज्ञान प्राप्त हुआ है और आप ही आदि गुरु हैं। हे श्रीराम! आप भूतमात्र के साथ समान भाव से व्यवहार करते हैं। आप समस्त गुणों में अप्रतिम और अद्वितीय हैं। यह कहने की आवश्यकता ही क्या है कि आपके समान दूसरा कोई नहीं है। आप आकाश हैं और आपमें ही यह सारा संसार समाविष्ट है। ऐसी स्थिति में यह कहना सिर्फ लज्जा का विषय है कि आपकी ही भाँति और कोई सर्वव्यापी है। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या कहा जाय! अत: त्रिभुवन में एकमात्र आप ही अद्वितीय हैं। आपकी समकक्षता का अथवा आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। आपकी महिमा अलौकिक और अवर्णनीय है।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (561-566)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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