श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
मैं आपको ‘कृष्ण’ कहकर बुलाया करता था; आपको भी दूसरे यादवों की भाँति समझा करता था और जब आप मेरे बुलाने पर मेरी बात अनसूनी करके जाने लगते थे, तब मैं आपको अपनी शपथ देकर रोकता था और ऐसा प्रायः किया करता था। एक ही आसन पर आपके साथ सटकर बैठा करता था अथवा आपकी बातों पर ध्यान नहीं देता था और परस्पर निकट सम्बन्ध होने से ऐसी धृष्टता मुझसे बार-बार हुई है। हे अनन्त प्रभु! इस प्रकार की बातें मैं कहाँ तक कहूँ। मैं समस्त अपराधों की राशि ही हूँ। अत: हे प्रभु! मैंने परोक्षरूप से अथवा प्रत्यक्षरूप से आपके साथ जो कुछ अपराध किये हों, उन सबको आप माता की भाँति अपनी ममतारूपी पेट में रख लें और मुझे क्षमा करें। जिस समय कोई नदी मटमैले जल को लेकर आती है, उस समय समुद्र को वह जल भी स्वीकार करना ही पड़ता है। इसके अलावा उसके लिये अन्य कोई उपाय ही नहीं होता। इसी प्रकार प्रीति से अथवा प्रमाद से मैंने आपके विरुद्ध जो-जो व्यवहार किये हों, वे सब, हे मुकुन्द! आपको अपने क्षमा-गुण के कारण सहन करने ही पड़ेंगे। हे देव! आपकी क्षमाशीलता के कारण ही इस जीव-सृष्टि में यम का राज्य रह सकेगा। इसलिये हे पुरुषोत्तम! इस विषय में आपकी जितनी विनती की जाय, वह सब थोड़ी ही होगी, पर फिर भी हे अप्रमेय! आप मुझ शरणागत को इन सब अपराधों के लिये क्षमा करें।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (544-560)
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