श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-3
कर्मयोग
अर्जुन ने कहा-“हे देव! हे कमलापति!! अभी तक अपने जो कुछ कहा, वह सब-की-सब बातें मैंने बड़े ही मनोयोगपूर्वक सुनीं। हे श्रीअनन्त, यदि आपका निश्चित मत यही है कि अच्छी तरह से सोच-विचार करने पर कर्म और कर्ता रहते ही नहीं, तो फिर हे श्रीहरि! आप मुझसे यह कैसे कहते हैं कि पार्थ, तुम युद्ध करो? इस महाघोर कर्म में मुझे ढकेलते हुए क्यों आपको कुछ संकोच नहीं होता? हे देव, जब आप ही समस्त कर्मों का पूर्णतया निषेध करते हैं, तो फिर मुझसे लड़ाई-झगड़े का यह हिंसक कर्म क्यों कराते हैं? हे हृषीकेश! जरा आप ही विचारकर देखिये, जब लेशमात्र भी कर्म को आप अच्छा नहीं मानते हैं, तो फिर आप जो मुझसे इतनी बड़ी हिंसा कराना चाहते हैं, वह क्यों?[1]
हे देव! जब आप ही इस प्रकार की गोलमटोल बातें कहेंगे, तो फिर हमारे-जैसे नासमझ लोग क्या करेंगे? क्या अब विवेक का मटियामेट हो गया? यदि ऐसी बातों को उपदेश कहा जाय तो क्या भ्रष्टता (भ्रम) इससे कोई पृथक् चीज होगी? आत्मबोध की जो चाहत मुझमें थी, वह तो आज खूब पूरी हुई! यदि वैद्य पथ्य बतलाकर रोगी के औषध में विष मिला दे तो फिर वह रोगी कैसे जीवित रह सकता है? मुझे बताइये! जैसे कोई अन्धे को टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर ले जाकर लगा दे अथवा बन्दर को कोई मादक पदार्थ पिला दे; मैं तो समझता हूँ कि ठीक ऐसा ही आपका सदुपदेश मुझे प्राप्त हुआ है। एक तो मैं पहले से ही नासमझ था; दूसरे ऊपर से यह मोह का फन्दा। इसलिये हे श्रीकृष्ण! इस विषय में तो मैंने सिर्फ आपका सार-असार विचार क्या है? यह पूछा था। पर आपका कुछ अजीब ही ढंग देखता हूँ। आपके उपदेश में और यह गड़बड़ी! फिर उसके अनुसार आचरण करने से कौन-सा हित होगा? मैंने सच्चे मन से आपकी बातों पर विश्वास किया था, परन्तु जब आप ही ऐसा करने लगे, तब तो हो चुका। आपने यदि ऐसा किया तो मेरी खूब भलाई की! ऐसी दशा में मैं ज्ञान की आशा ही क्यों रखूँ?” अर्जुन ने फिर कहा, “ज्ञान की तो यह अवस्था हो गयी; परन्तु साथ-ही-साथ एक और बुरी बात यह हो गयी कि पहले जो मेरा शान्त मन था, वह अब और भी क्षुब्ध हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1-5)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |