ज्ञानेश्वरी पृ. 400

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-12
भक्ति योग

हे सद्गुरु की कृपादृष्टि! तू शुद्ध, सुप्रसिद्ध, उदार और अखण्ड आनन्द की वृष्टि करने वाली है। तेरी जय हो, जय हो, विषयरूपी ब्याल के लिपट जाने पर अंग ऐंठने न लगें और विष का वेग उतर जाय, यह प्रभुत्व तेरा ही है। अब यदि प्रसाद-रस की तरंगें उठने लगें और उसकी बाढ़ आने लगे तो फिर संताप किसे संतप्त कर सकता है और शोक किसे पीड़ा दे सकता है? हे गुरु की कृपादृष्टि! तू प्रेम से भरा होने के कारण अपने सेवकों की ब्रह्मानन्द की लालसा पूरी करती है और उनके आत्म-साक्षात्कार के हौसले भी पूरे करती है। मूलाधार चक्ररूपी शक्ति की गोद में उन शिष्य बालकों को लेकर तू प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण करती है तथ हृदयाकाशरूपी पालने में उन्हें रखकर आत्मज्ञान के झोंके देती है। तू जीवात्म वाले भावों को उन पर से निछावर करके मन और प्राणवायु उन्हें खेलने के लिये देती है और उनके अंगों पर आत्मानन्द के आभूषण चढ़ाती है। तू उन्हें अमृत कलारूपी दूध पिलाती है, उनके मनोरंजन के लिये तू अनाहत नामक नादघोष के गीत गाती है और उन्हें समाधि-सुख से शान्त करके सुलाती है। इसलिये सब साधकों का पालन-पोषण करने वाली माता तू ही है। तेरे चरणों से समस्त विद्याएँ उत्पन्न होती हैं, इसलिये मैं तेरी शीतल छाया का परित्याग कभी नहीं करूँगा।

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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