ज्ञानेश्वरी पृ. 515

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग

हे आचार्य! आपकी जय हो, जय हो। समस्त देवों में आप ही श्रेष्ठ हैं। आप ही प्रज्ञा-प्रभात सूर्य हैं। सुख का उदय आपसे ही होता है। आप ही सबके विश्राम स्थल हैं। आप ही के द्वारा आत्मभावना का साक्षात्कार होता है। इस नानास्वरूप वाली पंचभूतात्मक सृष्टि की तरंगें जिस समुद्र पर उठती हैं, वह समुद्र आप ही हैं। आपके ऐसे स्वरूप की जय हो, जय हो। हे आर्तबन्धु! निरन्तर कारुण्यसिन्धु, शुद्ध आत्मविद्यारूपी वधू के वल्लभ, आप सुनें। आप जिनकी दृष्टि में नहीं आते, उन्हीं को आप यह मायिक विश्व दिखलाते हैं और उन्हीं पर यह नामरूपात्मक जगत् प्रकट करते हैं। दूसरों की दृष्टि को चुराने को ही दृष्टि-बन्ध कहते हैं; परन्तु आपका यह अद्भुत कौशल ऐसा है कि आप स्वयं अपना स्वरूप छिपाते हैं। हे गुरुदेव! आप ही इस विश्व के सर्वस्व हैं। यह सब नाटक आपका ही रचा हुआ है, आप ही किसी को माया का भास कराते हैं और किसी को आत्मबोध कराते हैं। आपके ऐसे स्वरूप को नमन है। मेरी समझ में तो सिर्फ यही आता है कि इस जगत् में जिसे अप् (जल) कहते हैं, उसे आपके ही शब्दों से मधुरता प्राप्त हुई है। आपसे ही पृथ्वी को क्षमा वाला गुण भी मिला हुआ है। सूर्य और चन्द्रमा इत्यादि जो तेजस्वी सिपाही संसार में उदित होते हैं उनके तेज को आपकी प्रभा से ही तेज प्राप्त होता है। वायु की चंचलता भी आपकी ही दिव्य सामर्थ्य है और आकाश भी आपका ही आश्रय पाकर यह आँख मिचौनी का खेल खेलता है।

तात्पर्य यह कि यह सारी माया आपकी ही देन है और आपकी ही सामर्थ्य से ज्ञान की दृष्टि प्राप्त होती है। पर अब इस विवेचन का यहीं अवसान करना चाहिये, कारण कि वेद भी ऐसा विवेचन करते-करते थक जाते हैं। जिस समय तक आपके आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होते, उस समय तक तो वेदों की विवेचनात्मकता शक्ति ठीक तरह काम करती है, पर जब आपके स्वरूप के सन्निकट की कोई मंजिल अथवा पड़ाव आ जाता है, तब फिर वेद भी तथा मैं भी- दोनों मौन हो जाते हैं, अर्थात् दोनों की दशा एक समान हो जाती है। जिस समय चतुर्दिक् समुद्र-ही-समुद्र हों और एक बुलबुला भी अलग न दिखायी देता हो, उस समय महानदियों को ढूँढ निकालने की बात ही नहीं करनी चाहिये।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः