श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
जिस समय सूर्योदय होता है, उस समय चन्द्रमा खद्योत की भाँति हो जाता है। इसी प्रकार आपके आत्मस्वरूप में वेद और मैं- दोनों ही एक-से हो जाते हैं। फिर जहाँ द्वैत का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता हो तथा परा वाणी के साथ वैखरी वाणी का भी लोप हो जाता हो, वहाँ भला मैं किस मुख से आपका वर्णन कर सकता हूँ। यही कारण है कि अब मैं आपकी स्तुति करने की चेष्टा छोड़कर चुपचाप आपके चरणों पर माथा टेकना ही अच्छा समझता हूँ। अत: हे गुरुराज! आपका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, आपके उसी स्वरूप को नमन है। हे देव! आप मुझ पर ऐसी कृपा करें, जिससे मैं इस ग्रन्थ-प्रणयन के व्यापार में सफल हो सकूँ। अब आप अपनी कृपा पूँजी खोलकर मेरी बुद्धिरूपी थैली में उड़ेल दें तथा मुझे ज्ञान-पद की प्राप्ति करा दें। फिर इसी के बल पर मैं और आगे पैर बढ़ाऊँगा तथा सन्तों के श्रवणेन्द्रियों में विवेक-वचनरूपी कर्णभूषण पहनाऊँगा। मेरी लालसा यही है कि आप गीता के गूढ़ार्थ का भण्डार खोल दें। हे महाराज! आप मेरे नेत्रों में अपना कृपारूपी दिव्यांजन लगावें। आप अपनी निर्मल करुणा के सूर्य को इस प्रकार उदय करें, जिसमें मेरी बुद्धिरूपी नेत्र भली-भाँति खुल जायँ और साहित्यरूपी सम्पत्ति मुझे साफ-साफ दृष्टिगोचर होने लगे। हे स्नेहीजन शिरोमणि! आप स्वयं ही ऐसा वसन्त काल बन जायँ, जिसके प्रभाव से मेरी बुद्धिरूपी बेल में काव्यरूपी फल लगने लें। हे परम उदार! आप अपनी उदार कृपा-दृष्टि से ऐसी वृष्टि करें, जिससे मेरी बुद्धिरूपी गंगा में तत्त्व-सिद्धान्तों की भरपूर बाढ़ आ जाय। हे विश्वैकधाम! आप के कृपारूपी चन्द्रमा से मुझे स्फूर्ति की पूर्णिमा प्राप्त हो और उसके देखते ही मेरे ज्ञान के सागर में ऐसा ज्वार आवे जो मेरे नवरसों के स्रोत को लबालब भरकर उछल पड़े और बहने लगे। |
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