ज्ञानेश्वरी पृ. 422

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

जिसके स्मरण मात्र से ही शिष्य में समस्त विद्याएँ आ जाती हैं, उन श्रीगुरुचरणों की मैं वन्दना करता हूँ। जिनके स्मरण से ही काव्य-शक्ति आ जाती है, सब प्रकार की रसाल वक्तृताएँ जिह्वाग्र पर आ बैठती हैं, वक्तृत्व की मधुरता के आगे अमृत भी फीका पड़ जाता है, हर एक अक्षर के सम्मुख समस्त रस टहल बजाते रहते हैं, उद्दिष्ट अर्थ खुल जाता है, रहस्य-ज्ञान हो जाता है तथा पूर्ण आत्मबोध हाथ लग जाता है, वे श्रीगुरुचरण ज्यों ही हृदय में आ बैठते हैं, त्यों ही ज्ञान का भाग्योदय हो जाता है। इसीलिये उन श्रीगुरुचरणों को नमन करके अब मैं यह बतलाता हूँ कि पितामह (ब्रह्मा) के भी पिता लक्ष्मीपति ने क्या कहा।[1]


श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: ॥1॥

श्रीभगवान् ने कहा- “हे पार्थ सुनो। देह को ‘क्षेत्र’ कहते हैं और जिसको इसका ज्ञान होता है उसे ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं।[2]


क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥2॥

पर इस सम्बन्ध में तुम यह निश्चित रूप से जान लो कि मैं ही ‘क्षेत्रज्ञ’ हूँ क्योंकि मैं ही समस्त क्षेत्रों (शरीरो) को पोषण करता हूँ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो वास्तविक ज्ञान है, वही मेरी दृष्टि में सर्वोत्तम ज्ञान है।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1-6)
  2. (7)
  3. (8-9)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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