ज्ञानेश्वरी पृ. 681

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग

हे निर्मलदेव! आपकी जय हो, जय हो, आप अपने भक्तों का सर्वथा हित करते हैं तथा आप ही जन्म और जरारूपी मेघों के समूह का नाश करने वाले प्रभंजन प्रबल वायु हैं। हे प्रबलदेव! समस्त अशुभों का नाश आप ही करते हैं और वेदशास्त्ररूपी वृक्ष के जो फल हैं, उन फलों के भी दाता आप ही हैं। हे स्वयं पूर्णदेव! आपका प्रेम सदा विरक्तों पर रहता है, काल की सामर्थ्य को भी आप ही रोकते हैं तथा इतना होने पर भी आप समस्त कलाओं से परे हैं। हे निश्चलदेव! चंचल चित्तों का सेवन करने के कारण आपकी तोंद निकली हुई है। जगत् को विकसित करके उसमें अनवरत क्रीड़ा करना आपको बहुत भाता है। हे अज्ञेयदेव! आप उत्कट अत्यानन्द को स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। समस्त प्रकार के दोषों का आप सदा नाश करते रहते हैं। आप विश्व के मूलाधार हैं। हे स्वयं प्रकाशदेव! आप ही इस जगद्रूपी मेघ को आश्रय प्रदान करने वाले आकाश हैं। इस सारे विश्व की रचना जिस मूल स्तम्भ पर हुई है, वह स्तम्भ भी आप ही हैं। जीवन और मृत्युरूपी जगत् का विध्वंस आप ही करते हैं। हे विशुद्धदेव! सिर्फ अज्ञान के ही नहीं, अपितु ज्ञानरूपी उद्यान का भी विध्वंस करने वाले गज, शम-दम के द्वारा मदन का मद चूर करने वाले तथा दयासिन्धु भी आप ही हैं। हे एकस्वरूपदेव! कामरूपी सर्प का गर्व हरण करने वाले, भक्तों के भक्तिरूपी मन्दिर को प्रकाशित करने वाले दीपक तथा ताप का शमन करने वाले आप ही हैं।

हे अद्वितीय परमेश्वर! जिनकी शान्ति और विरक्ति पूर्णता को प्राप्त हुई होती है, उन्हें आप अत्यन्त प्रिय होते हैं। आप अपने भक्तजनों के अधीन होते हैं। आप एकमात्र भक्ति के द्वारा प्राप्त करने योग्य हैं, पर माया के लिये आपका स्वरूप अगम्य है। हे श्रीगुरुरूपी देव! आप ऐसे विलक्षण हैं फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्ष हैं जो कल्पना से परे है। आप ऐसी उर्वराभूमि हैं जिसमें आत्मज्ञानरूपी वृक्ष का बीज उगता है और उसमें से अंकुर निकलते हैं। हे गुरुराज! आपकी जय हो, जय हो। हे भेदरहित श्रीगुरु! परन्तु आप ऐसे हैं कि आपके विशिष्ट लक्षण मन के द्वारा ज्ञेय नहीं हो सकते और न वाणी के द्वारा उनका उच्चारण ही हो सकता है। अत: आपके उद्देश्य से नाना प्रकार के शब्दों की योजना करके मैं आपके स्तोत्रों की कहाँ तक रचना करूँ! आपके विशिष्ट लक्षण बतलाने के लिये जिन-जिन विशेषणों का प्रयोग किया जाय उनके बारे में यही बात समझ में आती है कि वे समस्त विशेषण आपके यथार्थ स्वरूप के बोधक नहीं हो सकते और यही कारण है कि मैं सिर्फ लज्जित हो रहा हूँ।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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