ज्ञानेश्वरी पृ. 242

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

हे श्रोतावृन्द! मेरी यह स्पष्ट प्रतिज्ञा है कि यदि आप लोग पूर्ण मनोयोग से मेरा प्रवचन सुनें, तो निश्चय ही आप लोगों को सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी। पर यह बात मैं गर्व के साथ नहीं कह रहा हूँ, कारण कि आप सब लोग तो सब कुछ जानने वाले ही हैं; परन्तु फिर भी मैं आप सब श्रोताजनों से अत्यन्त ही आत्मीयता के साथ विनम्र निवेदन करता हूँ कि आप लोग मेरी बातों की ओर ध्यान दें। इसका प्रमुख कारण यही है कि जैसे किसी स्त्री को ऐश्वर्यसम्पन्न नैहर (समर्थ माँ-बाप) प्राप्त होता है और उस नैहर से उसके समस्त लाड़-चाव एवं मनोरथ पूरे होते हैं, वैसे ही मुझे आप लोगों का सहारा मिला हुआ है और आप ही लोगों से मेरे सारे मनोरथ सिद्ध होंगे। आप सब लोगों की कृपादृष्टि की वृष्टि के कारण मेरी प्रसन्नता का बागीचा खूब फल-फूल रहा है और उस बागीचे की ठंडी छाया देखकर संसार के ताप से संतप्त मेरा जीव उस छाया में लोट-पोट रहा है तथा उसके ताप का भी शमन हो रहा है। आप सब लोग सुखरूपी अमृत के गम्भीर देह हैं, इसलिये मैं मनमाना सुखामृत ले सकता हूँ। अब इतना बढ़िया सुअवसर पाकर भी यदि मैं प्यारभरी बातें करने में भय खाऊँ, तब फिर मुझे सुख और शान्ति कब मिल सकती है? वास्तविकता तो यह है कि जैसे अपने बालक की तोतली बातें सुनकर और उसके टेढ़े-मेढ़े पड़ने वाले पैरों को प्रसन्नतापूर्वक देखकर उस बच्चे की माता आनन्दित होती है, वैसे ही मैं भी आप सब सन्तों का प्रेम पाने की लालसा से प्यारभरी ये सब बातें कह रहा हूँ और नहीं तो यदि मेरे वक्तृत्व की योग्यता देखी जाय तो वह कुछ भी नहीं है और आप लोग तो सब कुछ जानने वाले ही हैं। ऐसी दशा में यदि मैं आप सब श्रोताओं के समक्ष बैठकर प्रवचन करूँ और आप लोग उसे सुनें, तो मेरा यह प्रयास स्वयं सरस्वती के पुत्र को पटिया पर पाठ लिखाकर उन्हें शिक्षा देने के सदृश ही होगा। देखिये, खद्योत चाहे कितना ही विशाल क्यों न हो, पर फिर भी सूर्य के महातेज के समक्ष उसकी कुछ भी नहीं चल सकती। भला इस प्रकार का रस-परिपाक कहाँ प्राप्त हो सकता है जो अमृत से भरी थाली में परोसा जा सके? भला, यह कभी सम्भव है कि सबको शीतलता प्रदान करने वाले चन्द्रमा को पंखे से हवा की जाय? अथवा स्वयं नाद-तत्त्व को गाना सुनाया जाय? अथवा अलंकार को ही अलंकार पहनाया जाय?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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