श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
अर्जुन ये सब बातें कहकर भगवान् को दण्डवत् किया और तत्क्षण ही उसके शरीर में सात्त्विक भावों की बाढ़-सी आ गयी। फिर वह गद्गद स्वर से कहने लगा-“हे प्रभू! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों। इस अपराधसिन्धु से मुझे निकालें। आप समस्त जगत् के सुहृद् हैं; पर मैंने भाईचारे के नाते से कभी आपका विशेष सम्मान नहीं किया। हे विश्वेश्वर! आपके साथ मैंने ऐसा आश्चर्यजनक और लज्जास्पद आचरण किया है। यदि सचमुच देखा जाय तो प्रशंसा के पात्र स्वयं आप ही थे; पर आपने भरी सभा में मेरी प्रशंसा की और मैं अहंकारपूर्वक बैठा हुआ डींग हाँकता रहा हे मुकुन्द! मेरे ऐसे अपराधों का कहीं अन्त ही नहीं है। इसीलिये आप इन अपराधों से मुझे उबारें। मुझमें तो इस प्रकार की क्षमा-याचना करने की योग्यता नहीं है। परन्तु जिस प्रकार बालक अपने पिता के समक्ष बड़े प्रेम से बोलता है और यदि उसका अपराध भी होता है, तो भी जिस प्रकार पिता अपने चित्त में परायेपन का भाव न रखकर प्रेम से उसके समस्त अपराध क्षमा कर देता है, उसी प्रकार आप भी मेरे सारे अपराध क्षमा करेंगे, मित्र का अपराध मित्र ही सहन करते हैं। बस इसी प्रकार आप भी मेरा अपराध सहन करें। जैसे कोई प्रेमी व्यक्ति अपने किसी प्रेमी व्यक्ति से सम्मान की कामना नहीं करता, वैसे ही हे देव! आपने जो मेरे घर में जूठन उठायी और मैंने आपको उठाने दी, उसके लिये भी आप मुझे क्षमा करें अथवा जिस समय किसी घनिष्ठ और प्रियजन से भेंट होती है, उस समय संसार में अनुभव किये हुए समस्त संकटों का वर्णन करने में कोई संकोच नहीं होता अथवा जब अपना तन, मन और आत्मा-इन तीनों का पूर्णरूप से अपने पति को समर्पित कर चुकी कोई पतिपरायणा स्त्री मिलती है, तब उसके साथ बिना खुले दिल से बातें किये रहा ही नहीं जाता। इसी प्रकार, हे गोस्वामी! मैंने भी आपसे विनती की है। इसके अतिरिक्त ये बातें कहने का और भी एक कारण है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (567-578)
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