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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पुरुषोत्तम-योग
अश्वत्थ अव्यय कहते जिसे हैं-अश्वत्थ को वट या पीपल वृक्ष भी कहते हैं। महाभारत के वन पर्व की अध्याय 188 में मार्कण्डेय ऋषि द्वारा वर्णित प्रलय-कालिक वृत्तान्त है। प्रलय होने पर भी जिस वट-वृक्ष का नाश नहीं हुआ था उस ही वट-वृक्ष[1] का वर्णन यहाँ है, जिसे अव्यय-अविनाशी कहा है। इस वट-वृक्ष पर जिस चन्द्रमुखी-कमल-नेत्र बालक को मार्कण्डेय ऋषि ने शयन करते देखा वह बालक वही परम-ब्रह्म परमेश्वर था; जिसका वर्णन अध्याय 8 के श्लोक 20 में इस प्रकार किया है कि-
अर्थात ‘अव्यक्त से भी परे एक अन्य सनातन अव्यक्त तत्त्व और है, जो समस्त भूत-पदार्थों का नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह अव्यक्त-तत्त्व ही अक्षर कहलाता है। जिसे जानते वेद विद हैं-जो इस ब्रह्म वृक्ष को जानने वाले हैं वे ही वेदों को जानने वाले हैं। वेदों में ईश्वर के ऐश्वर्य का, विभूतियों का, प्रकृति के गुणों का सृष्टि रचना का, प्रलय तथा संहार का वर्णन है। अतः वेदों में ईश्वरीय ज्ञान है। जो वेदों का ज्ञाता होता है उसे ईश्वरीय ज्ञान होता है; अथवा पर्याय से यह भी कहा जा सकता है कि जिसे इस आश्वत्थ[2] का ज्ञान होता है वही वेदों का जानने वाला होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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