गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 920

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-15
पुरुषोत्तम-योग
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अश्वत्थ अव्यय कहते जिसे हैं-

अश्वत्थ को वट या पीपल वृक्ष भी कहते हैं। महाभारत के वन पर्व की अध्याय 188 में मार्कण्डेय ऋषि द्वारा वर्णित प्रलय-कालिक वृत्तान्त है। प्रलय होने पर भी जिस वट-वृक्ष का नाश नहीं हुआ था उस ही वट-वृक्ष[1] का वर्णन यहाँ है, जिसे अव्यय-अविनाशी कहा है। इस वट-वृक्ष पर जिस चन्द्रमुखी-कमल-नेत्र बालक को मार्कण्डेय ऋषि ने शयन करते देखा वह बालक वही परम-ब्रह्म परमेश्वर था; जिसका वर्णन अध्याय 8 के श्लोक 20 में इस प्रकार किया है कि-


अव्यक्त सनातन एक और भी,
होता परतर भाव अव्यक्त से।
विनाश जिसका होता न कभी भी,
विनष्ट सर्वभूत भी होने से।।

अर्थात ‘अव्यक्त से भी परे एक अन्य सनातन अव्यक्त तत्त्व और है, जो समस्त भूत-पदार्थों का नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह अव्यक्त-तत्त्व ही अक्षर कहलाता है।

जिसे जानते वेद विद हैं-

जो इस ब्रह्म वृक्ष को जानने वाले हैं वे ही वेदों को जानने वाले हैं। वेदों में ईश्वर के ऐश्वर्य का, विभूतियों का, प्रकृति के गुणों का सृष्टि रचना का, प्रलय तथा संहार का वर्णन है। अतः वेदों में ईश्वरीय ज्ञान है। जो वेदों का ज्ञाता होता है उसे ईश्वरीय ज्ञान होता है; अथवा पर्याय से यह भी कहा जा सकता है कि जिसे इस आश्वत्थ[2] का ज्ञान होता है वही वेदों का जानने वाला होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अश्वत्थ
  2. ब्रह्म-वृक्ष या ईश्वर

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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