गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 919

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-15
पुरुषोत्तम-योग
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ऊर्ध्वमूल अधःशाखा है-

इस अश्वत्थ[1] की मूल तो ऊपर होना और शाखाएँ नीचे होना वर्णन किया गया है। इसका क्या कारण है ? अध्याय 8 श्लोक 20 के इस कथन से कि - ‘अव्यक्त सनातन एक और भी, होता परतर भाव अव्यक्त से’ तथा अध्याय 1 श्लोक 37 में अर्जुन के इस वर्णन से कि - ‘परे सत्-असत् से परम अक्षर भी, हो आदिकर्ता व ब्रह्म से श्रेष्ठ भी’ यह अव्यक्त सनातन परतर भाव विश्व के निर्माता ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ व ऊँची श्रेणी का माना गया है और ब्रह्मा इससे निम्न श्रेणी का। ब्रह्मा सृष्टि का रचयिता माना जाता है, अतः इस निम्न-श्रेणी के तत्त्व द्वारा रचित रचना अर्थात् शाखाएँ व अंकुर निम्न श्रेणी के नीचे की ओर फैलने वाले होते हैं। परम-ब्रह्म परमात्मा सर्वोपरि है। जब परम-ब्रह्म की इच्छा एक से अनेक होने की हुई तो नानाविधि सृष्टि की रचना हुई। अतः यह हरेच्छा सृष्टि-रचना का मूल है। मूल से ही वृक्ष को रस पहुँचता है, और उसका पोषण होता है; और परम-ब्रह्म परमात्मा ही सृष्टि का धारण-पोषण करने वाला मूल कारण है। इनहीं कारणों से ब्रह्म-वृक्ष को ऊर्ध्व-मूल अधःशाखा वाला कहा है।

पत्रावली वेद छन्दावली है-

ब्रह्म-वृक्ष के माहात्मय का वर्णन व गुण-गान वेद-सूत्रों में किया गया है जो इस वृक्ष की शोभा बढ़ाने वाले हैं। अतः जिस प्रकार वृक्ष को पत्ते सुशोभित करते हैं उसी प्रकार वेद-सूत्र रूपी पत्ते ब्रह्म-वृक्ष की शोभा बढ़ाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वट-वृक्ष

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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