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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पुरुषोत्तम-योग
ऊर्ध्वमूल अधःशाखा है-इस अश्वत्थ[1] की मूल तो ऊपर होना और शाखाएँ नीचे होना वर्णन किया गया है। इसका क्या कारण है ? अध्याय 8 श्लोक 20 के इस कथन से कि - ‘अव्यक्त सनातन एक और भी, होता परतर भाव अव्यक्त से’ तथा अध्याय 1 श्लोक 37 में अर्जुन के इस वर्णन से कि - ‘परे सत्-असत् से परम अक्षर भी, हो आदिकर्ता व ब्रह्म से श्रेष्ठ भी’ यह अव्यक्त सनातन परतर भाव विश्व के निर्माता ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ व ऊँची श्रेणी का माना गया है और ब्रह्मा इससे निम्न श्रेणी का। ब्रह्मा सृष्टि का रचयिता माना जाता है, अतः इस निम्न-श्रेणी के तत्त्व द्वारा रचित रचना अर्थात् शाखाएँ व अंकुर निम्न श्रेणी के नीचे की ओर फैलने वाले होते हैं। परम-ब्रह्म परमात्मा सर्वोपरि है। जब परम-ब्रह्म की इच्छा एक से अनेक होने की हुई तो नानाविधि सृष्टि की रचना हुई। अतः यह हरेच्छा सृष्टि-रचना का मूल है। मूल से ही वृक्ष को रस पहुँचता है, और उसका पोषण होता है; और परम-ब्रह्म परमात्मा ही सृष्टि का धारण-पोषण करने वाला मूल कारण है। इनहीं कारणों से ब्रह्म-वृक्ष को ऊर्ध्व-मूल अधःशाखा वाला कहा है। पत्रावली वेद छन्दावली है-ब्रह्म-वृक्ष के माहात्मय का वर्णन व गुण-गान वेद-सूत्रों में किया गया है जो इस वृक्ष की शोभा बढ़ाने वाले हैं। अतः जिस प्रकार वृक्ष को पत्ते सुशोभित करते हैं उसी प्रकार वेद-सूत्र रूपी पत्ते ब्रह्म-वृक्ष की शोभा बढ़ाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वट-वृक्ष
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