अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
106. साधना की पराकाष्ठा ही सिद्धि
22. जहाँ साधना की पराकाष्ठा होती है, वहीं सिद्धि हाथ जोड़कर खड़ी रहती है। जिस घर जाना है, वह यदि वृक्ष के नीचे ‘घर-घर’ का जाप करते बैठेगा, तो घर तो दूर ही रहेगा, उलटा उसे जंगल में ही रहने की नौबत आ जायेगी। घर का स्मरण करते हुए यदि रास्ते में विश्राम करने लग जाओगे, तो उस अंतिम विश्राम स्थान से दूर रह जाओगे। मुझे तो चलने का ही प्रयत्न करना चाहिए। उसी से घर एकदम सामने आयेगा। मोक्ष के आलसी स्मरण से मेरे प्रयत्न में, मेरी साधना में शिथिलता आयेगी और मोक्ष मुझसे दूर चला जायेगा। मोक्ष की उपेक्षा करके सतत साधनारत रहना ही मोक्ष को पास बुलाने का उपाय है। अकर्म-स्थिति, विश्रांति की लालसा मत रखो। साधना का ही प्रेम रखो, तो मोक्ष मिलकर रहेगा। उत्तर-उत्तर चिल्लाने से प्रश्न का उत्तर नही मिलता। उसे हल करने की जो रीति मुझे आती है, उसी से क्रमानुसार उत्तर मिलेगा। वह रीति जहाँ समाप्त होती है, वहीं उसका उत्तर रखा है। समाप्ति के पहले समाप्ति कैसे होगी? रीति से पहले उत्तर कैसे मिलेगा? साधकावस्था में सिद्धावस्था कैसे प्राप्त होगी? पानी में डुबकियां खाते हुए परले पार के मौज-मजे में ध्यान रहेगा, तो कैसे काम चलेगा? उस समय तो एक-एक हाथ मारकर आगे जाने में ही सारा ध्यान और सारी शक्ति लगानी चाहिए। पहले साधना पूरी करो, समुद्र लांघो, मोक्ष अपने-आप मिल जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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