गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 226

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
106. साधना की पराकाष्ठा ही सिद्धि

22. जहाँ साधना की पराकाष्ठा होती है, वहीं सिद्धि हाथ जोड़कर खड़ी रहती है। जिस घर जाना है, वह यदि वृक्ष के नीचे ‘घर-घर’ का जाप करते बैठेगा, तो घर तो दूर ही रहेगा, उलटा उसे जंगल में ही रहने की नौबत आ जायेगी। घर का स्मरण करते हुए यदि रास्ते में विश्राम करने लग जाओगे, तो उस अंतिम विश्राम स्थान से दूर रह जाओगे। मुझे तो चलने का ही प्रयत्न करना चाहिए। उसी से घर एकदम सामने आयेगा। मोक्ष के आलसी स्मरण से मेरे प्रयत्न में, मेरी साधना में शिथिलता आयेगी और मोक्ष मुझसे दूर चला जायेगा। मोक्ष की उपेक्षा करके सतत साधनारत रहना ही मोक्ष को पास बुलाने का उपाय है।

अकर्म-स्थिति, विश्रांति की लालसा मत रखो। साधना का ही प्रेम रखो, तो मोक्ष मिलकर रहेगा। उत्तर-उत्तर चिल्लाने से प्रश्न का उत्तर नही मिलता। उसे हल करने की जो रीति मुझे आती है, उसी से क्रमानुसार उत्तर मिलेगा। वह रीति जहाँ समाप्त होती है, वहीं उसका उत्तर रखा है। समाप्ति के पहले समाप्ति कैसे होगी? रीति से पहले उत्तर कैसे मिलेगा? साधकावस्था में सिद्धावस्था कैसे प्राप्त होगी? पानी में डुबकियां खाते हुए परले पार के मौज-मजे में ध्यान रहेगा, तो कैसे काम चलेगा? उस समय तो एक-एक हाथ मारकर आगे जाने में ही सारा ध्यान और सारी शक्ति लगानी चाहिए। पहले साधना पूरी करो, समुद्र लांघो, मोक्ष अपने-आप मिल जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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