गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 227

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
107. सिद्ध पुरुष की तिहरी भूमिका

23. ज्ञानी पुरुष की अंतिम अवस्था में सब क्रियाएं लुप्त हो जाती हैं, शून्य रूप हो जाती हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि अंतिम स्थिति में क्रिया होगी ही नहीं। उसके द्वारा क्रिया होगी भी और नहीं भी होगी। अंतिम स्थिति अत्यंत रमणीय और उदात्त है। इस अवस्था में जो भी कुछ होगा, उसकी उसे चिंता नहीं होती। जो भी होगा, वह शुभ और सुंदर ही होगा। साधना की पराकाष्ठा की दशा पर वह खड़ा है। वहाँ सब कर्म करने पर भी वह कुछ नहीं करेगा। संहार करने पर भी संहार नहीं करेगा। कल्याण करने पर भी कल्याण नहीं करेगा।

24. यह अंतिम मोक्षावस्था ही साधक की साधना की पराकाष्ठा है। साधना की पराकाष्ठा का अर्थ है- साधना की सहजावस्था। वहाँ इस बात की कल्पना भी नहीं रहती कि मैं कुछ कर रहा हूँ अथवा इस दशा को मैं साध की, साधना की ‘अनैतिकता’ कहूंगा। सिद्धावस्था नैतिक अवस्था नहीं है। छोटा बच्चा सच बोलता है, पर वह नैतिक नहीं है; क्योंकि झूठ क्या है, इसकी तो उसे कल्पना ही नहीं है। असत्य की कल्पना होने पर सत्य बोलना नैतिक कर्म है। सिद्धावस्था में असत्य है ही नहीं। वहाँ तो सत्य ही है। इसलिए वहाँ नीति नहीं। निषिद्ध वस्तु वहाँ फटकती ही नहीं। जो नहीं सुनना चाहिए वह कान के अंदर जाता ही नहीं, जो वस्तु नहीं देखनी चाहिए वह आंखें देखती ही नहीं, जो होना चाहिए वही हाथों से होता है, उसका प्रयत्न नहीं करना पड़ता, जिसे टालना चाहिए उसे टालना नहीं पड़ता, वह अपने-आप ही टल जाता है- ऐसी यह नीतिशून्य अवस्था है। यह जो साधना की पराकाष्ठा है, इसे साधना की सहजावस्था, अनैतिकता या अतिनैतिकता कहो, इस अतिनैतिकता में ही नीति का परम उत्कर्ष है। ‘अतिनैतिकता’ शब्द मुझे अच्छा सूझा अथवा इस दशा को ‘सात्त्विक साधना की निःसत्त्वता’ भी कह सकते हैं।

25. दस दशा का किस प्रकार वर्णन करें? जिस तरह ग्रहण के पहले वेध लगता है, उसी तरह शरीरांत हो जाने पर आनेवाली मोक्ष दशा की छाया देह गिरने के पहले ही पड़ने लग जाती है। देहावस्था में ही भावी मोक्ष स्थिति का अनुभव होने लगता है। इस स्थिति का वर्णन करने में वाणी लड़खड़ाती है। वह कितनी भी हिंसा करें, फिर भी कुछ नहीं करना। उसकी क्रिया अब किस नाप से नापी जाये? जो कुछ उसके द्वारा होगा, वह सब सात्त्विक कर्म ही होगा। सभी क्रियाओं के क्षय हो जाने पर भी संपूर्ण विश्व का वह लोक-संग्रह करेगा। इसके लिए किस भाषा का प्रयोग करें, यह समझ में नहीं आता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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