चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
75. प्रकृति का विश्लेषण
1. भाइयो, आज का चौदहवां अध्याय एक अर्थ में पिछले अध्यायों का पूरक ही है। सच पूछो तो आत्मा को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। वह स्वयं पूर्ण है। हमारी आत्मा की गति स्वभावतः ही ऊर्ध्वगामी है; परंतु किसी वस्तु के साथ कोई भारी वजन बांध दिया जाता है, तब जैसे वह नीचे खिंचती चली जाती है, उसी तरह शरीर का यह बोझ आत्मा को नीचे खींच ले जाता है। पिछले अध्याय में हमने यह देखा कि किसी भी उपाय से यदि देह और आत्मा को हम पृथक कर सकें, तो हमारी प्रगति हो सकती हैं यह बात भले ही कठिन हो, पर इसका फल महान है। आत्मा के पांव की यह देह रूपी बेड़ी यदि हम काट सकें, तो हमें भारी आनंद प्राप्त होगा। फिर मनुष्य देह के दुःख से दुःखी नहीं होगा। वह स्वतंत्र हो जायेगा। इस देह रूपी वस्तु को मनुष्य जीत ले, तो फिर संसार में कौन उस पर सत्ता चला सकता है? जो स्वयं पर राज्य करता है, वह विश्व का सम्राट हो जाता है। अतः आत्मा पर देह की जो सत्ता हो गयी है, उसे हटा दो। देह के ये जो सुख-दुःख है, सब विदेशी हैं। सब विजातीय हैं। आत्मा से उनका तिल मात्र भी संबंध नहीं है। 2. इस सब सुख-दुःखों को किस अंश तक देह से अलग किया जाये, इसकी कल्पना मैंने भगवान ईसा के उदाहरण द्वारा बतायी है। उन्होंने दिखा दिया कि देह टूट रही हो, फिर भी हम किस तरह शांत और आनंदमय रहें; परंतु इस तरह देह को आत्मा से अलग रखना जैसे एक ओर से विवेक का काम है, वैसे ही दूसरी ओर से वह निग्रह का भी काम है। विवेकासहित वैराग्याचें बळ, ‘विवेक के साथ वैराग्य का बल’- ऐसा तुकाराम ने कहा है। विवेक और वैराग्य, दोनों बातों की जरूरत है। वैराग्य ही एक प्रकार से निग्रह, तितिक्षा है। इस चौदहवें अध्याय में निग्रह की दिशा दिखायी गयी है। नाव को खेने का काम डांड़ करते हैं, परंतु दिशा दिखाने का काम पतवार करती है। डांड़ और पतवार, दोनों चाहिए। उसी तरह देह के सुख-दुःख से आत्मा को अलग रखने के लिए विवेक और निग्रह, दोनों की आवश्यकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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