गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 26

Prev.png
चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
14. कर्म को विकर्म का योग चाहिए

1. भाइयो, पिछले अध्याय में हमने निष्काम कर्मयोग का विवेचन किया। स्वधर्म को टालकर यदि हम अवांतर धर्म स्वीकार करेंगे, निष्कामतारूपी फल अशक्य ही है। स्वदेशी माल बेचना व्यापारी का स्वधर्म है। परन्तु इस स्वधर्म को छोडकर जब वह सात समुन्दर पार का विदेशी माल बेचने लगता है, तब मूलतः उसके सामने यही हेतु रहता है कि बहुत नफा मिलेगा। तो फिर उसे कर्म में निष्कामता कहाँ से आयेगी? अतएव कर्म को निष्काम बनाने के लिए स्वधर्म पालन की अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु यह स्वधर्माचरण भी ‘सकाम’ हो सकता है। अहिंसा की ही बात हम लें, जो अहिंसा का उपासक है, उसके लिए हिंसा तो वर्ज्य है; परन्तु यह सम्भव है कि ऊपर से अहिंसक होते हुए भी वह वास्तव में हिंसामय हो; क्योंकि हिंसा मन का एक धर्म है। महज बाहर से हिंसा कर्म न करने से ही मन अहिंसामय हो जायेगा, सो बात नहीं। तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परन्तु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं। ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है। निष्कामता के लिए 'पर धर्म' से तो बचना ही होगा। परन्तु यह तो निष्कामता का आरम्भ मात्र हुआ। इससे हम साध्य तक नहीं पहुँच गये।

निष्कामता मन का धर्म है। इसकी उत्पत्ति के लिए स्वधर्माचरण रूपी साधन ही काफी नहीं है। दूसरे साधनों का भी सहारा लेना पड़ेगा। अकेली तेल-बत्ती से दीया नहीं जल जाता। उसके लिए ज्योति की जरूरत होती है। ज्योति होगी, तो अंधेरा दूर होगा। यह ज्योति कैसे जलायें? इसके लिए मानसिक संशोधन की जरूरत है। आत्म-परीक्षण के द्वारा चित्त की मलिनता धो डालना चाहिए तीसरे अध्याय के अंत में यही मार्के की बात भगवान ने बतायी थी। इसी में से चौथे अध्याय का जन्म हुआ है।

2. गीता में ‘कर्म’ शब्द ‘स्वधर्म’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हमारा खाना, पीना, सोना, ये कर्म ही है; परन्तु गीता का ‘कर्म’ शब्द से ये सब क्रियाएं सूचित नहीं होती हैं। कर्म से वहाँ मतलब स्वधर्माचरण से है। परन्तु इस स्वधर्माचरण रूपी कर्म को करके निष्कामता प्राप्त करने के लिए और भी एक महत्त्वपूर्ण सहायता जरूरी है। वह है, काम और क्रोध को जीतना। चित्त जब तक गंगाजल की तरह निर्मल और प्रशांत न हो जाये, तब तक निष्कामता नहीं आ सकती। इस तरह चित्त-संशोधन के लिए जो-जो कर्म किये जायें, उन्हें गीता ‘विकर्म’ कहती है। ‘कर्म’ ‘विकर्म’ और ‘अकर्म’- ये तीन शब्द इस चौथे अध्याय में बड़े महत्त्व के हैं। ‘कर्म’ का अर्थ है, स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल क्रिया। इस बाहरी क्रिया में चित्त को लगाना ही ‘विकर्म’ है। ऊपर से हम किसी को नमस्कार करते हैं, परन्तु सिर झुकाने की उस ऊपरी क्रिया के साथ ही यदि भीतर से मन भी न झुकता हो, तो बाह्य क्रिया व्यर्थ है। अंतर्बाह्य दोनों एक होना चाहिए। बाहर से मैं शिवलिंग पर सतत जल-धार गिराते हुए अभिषेक करता हूँ। परन्तु इस जल-धारा के साथ ही यदि मानसिक चिन्तन की धारा भी अखंड न चलती हो, तो उस अभिषेक की क्या कीमत रही? फिर तो सामने का वह शिव-लिंग भी पत्थर और मैं भी पत्थर। पत्थर के सामने पत्थर बैठा, यही उसका अर्थ होगा। निष्काम कर्मयोग तभी सिद्ध होता है, जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्त शुद्धिरूपी कर्म का भी संयोग होता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः