गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 126

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बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
59. अध्याय 6 से 11 एकाग्रता से समग्रता

1. गंगा प्रवाह यों तो सभी जगह पावन और पवित्र है; परंतु हरिद्धार‚ काशी‚ प्रयाग जैसे स्थान अधिक पवित्र हैं। उन्होंने सारे संसार को पवित्र बना दिया है। भगवद्गीता का यही हाल है। भगवद्गीता आदि से अंत तक सभी जगह पवित्र है। परंतु बीच में कुछ अध्याय ऐसे हैं‚ जो तीर्थ-क्षेत्र बन गये हैं। आज जिस अध्याय के संबंध में हमें कहना है‚ वह बड़ा पावन तीर्थ बन गया है। स्वयं भगवान ही उसे 'अमृतधारा' कहते हैं- ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। है तो यह छोटा-सा बीस श्लोकों का ही अध्याय‚ परंतु अमृत की धारा है। अमृत की तरह मधुर है‚ संजीवन-दायी है। इस अध्याय में भगवान ने श्रीमुख से भक्तिरस की महिमा का तत्त्व गाया है।

2. वास्तव में छठे अध्याय से भक्ति-तत्त्व प्रारंभ हो गया है। पांचवें अध्याय के अंत तक जीवन-शास्त्र का प्रतिपादन हुआ। स्वधर्माचरण रूप कर्म‚ उसके लिए सहायक मानसिक साधनारूप विकर्म‚ इन दोनों की साधना से संपूर्ण कर्मों को भस्म करने वाली अंतिम अकर्म की भूमिका, इतनी बातों का विचार पहले पांच अध्यायों तक हुआ। इतने में जीवनशास्त्र समाप्त हो गया। फिर छठे अध्याय से ग्यारहवें अध्याय के अंत तक एक तरह से भक्ति तत्त्व का ही विचार चला। एकाग्रता से आरंभ हुआ। छठे अध्याय में यह बताया गया है कि चित्त की एकाग्रता कैसे हो सकती है‚ उसके क्या-क्या साधन हैं और उसकी क्यों आवश्यकता है? ग्यारहवें अध्याय में समग्रता बतायी गयी है। अब देखना यह है कि एकाग्रता से लेकर समग्रता तक की लंबी मंजिल हमने कैसे तय की?


चित्त की एकाग्रता से शुरूआत हुई। एकाग्रता होने पर किसी भी विषय का विचार मनुष्य कर सकता है। चित्त की एकाग्रता उपयोग- मेरा प्रिय विषय लें तो गणित के अध्ययन में हो सकेगा। उससे अवश्य फल-लाभ होगा। परंतु यह चित्त की एकाग्रता सर्वोत्तम साध्य नहीं है। गणित के अध्ययन से एकाग्रता की पूरी परीक्षा नहीं होती। गणित में अथवा ऐसे ही किसी ज्ञान–प्रांत में चित्त की एकाग्रता से सफलता तो मिलेगी; परंतु यह सच्ची परीक्षा नहीं है। इसलिए सातवें अध्याय में यह बतलाया कि हमारी दृष्टि भगवान के चरणों की ओर होना चाहिए। आठवें अध्याय में कहा गया कि भगवान के चरणों में एकाग्रता सतत बनी रहे। हमारी वाणी‚ कान‚ आंख सतत उसी में लगी रहें‚ इसलिए आमरण प्रयत्न करना चाहिए। हमारी सभी इंद्रियों को ऐसा अभ्यास हो जाना चाहिए।


पडिलें वळण इंद्रियां सकळां। भावतो निराळां नाही दुजा– 'सब इंदियों को आदत पड़ गयी‚ अब दूसरी भावना नहीं रही।' ऐसा हो जाना चाहिए। सब इंद्रियों को भगवान की धुन लग जानी चाहिए। हमारे समीप चाहे कोई विलाप कर रहा हो या भजन गा रहा हो‚ कोई वासना का जाल बुन रहा हो या विरक्त सज्जनों का‚ संतों का समागम हो रहा हो‚ सूर्य हो या अंधकार हो‚ मरणकाल में परमेश्वर ही चित्त के सामने खड़ा रहेगा। इस तरह का अभ्यास जीवन भर सब इंद्रियों से कराना‚ यह सातत्य की शिक्षा आठवें अध्याय में दी गयी है। छठे अध्याय में एकाग्रता‚ सातवें में ईश्वराभिमुख एकाग्रता यानि ‘प्रपत्ति‘‚ आठवें में सातत्ययोग और नवें में समर्पणता सिखायी है। दसवें में क्रमिकता बतायी है। एक-एक कदम आगे चलगकर ईश्वर का रूप कैसे हृदयंगम किया जाये‚ चींटी से लेकर ब्रह्मदेव तक में व्याप्त परमात्मा धीरे-धीरे कैसे आत्मसात किया जाये‚ यह बताया गया। ग्यारहवें अध्याय में समग्रता बतायी गयी। विश्वरूप-दर्शन को ही मैं 'समग्रता-योग' कहता हूँ। विश्वरूप-दर्शन यानि यह अनुभव करना कि मामूली रज-कण में भी सारा विश्व समाया हुआ है। यही विराट दर्शन है। छठे अध्याय से लेकर ग्यारहवें तक भक्ति-रस की ऐसी यह भिन्न-भिन्न प्रकार से छानबीन की गयी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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