छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
25. आत्मोद्धार की आकांक्षा
1. पांचवें अध्याय में हम कल्पना और विचार के द्वारा देख सके कि मनुष्य की ऊंची-से-ऊंची उड़ान कहाँ तक जा सकती है। कर्म, विकर्म, अकर्म मिलकर सारी साधना पूर्ण होती है। कर्म स्थूल वस्तु है। जो-जो स्वधर्म-कर्म हम करें, उसमें हमारे मन का सहयोग होना चाहिए। मानसिक शिक्षण के लिए जो कर्म करना पड़ता है, वह विकर्म, विशेष कर्म अथवा सूक्ष्म कर्म है। आवश्यकता कर्म और विकर्म, दोनों की है। इन दोनों का प्रयोग करते-करते अकर्म की भूमिका तैयार होती है। हमने पिछले अध्याय में देख लिया कि इस भूमिका में कर्म और संन्यास, दोनों एकरूप ही हो जाते हैं। अब छठे अध्याय के आरम्भ में फिर कहा है कि कर्मयोगी की भूमिका संन्यास की भूमिका से अलग दिखायी देने पर भी अक्षरशः एकरूप है। केवल दृष्टि का अंतर है। पांचवें अध्याय में जिस अवस्था का वर्णन किया गया है, उसके साधन खोजना, यह बाद के अध्यायों का विषय है। 2. कई लोगों की ऐसी एक भ्रामक कल्पना है कि परमार्थ, गीता आदि ग्रन्थ साधुओं के लिए ही हैं। एक गृहस्थ ने कहा- "मैं कोई साधु नहीं हूँ।" इसका अर्थ यह हुआ कि ‘साधु’ नाम के कोई प्राणी हैं, जिनमें से वे नहीं है। जैसे घोड़े, सिंह, भालू, गाय आदि प्राणी हैं, वैसे ही साधु नाम के भी कोई प्राणी हैं और परमार्थ की कल्पना केवल उन्हीं के लिए है। शेष जो व्यावहारिक जगत् में रहते हैं, वे मानो किसी और जाति के हैं उनके विचार अलग, आचार अलग। इस कल्पना ने साधु-संत और व्यावहारिक लोग, ऐसी दो अलग-अलग जातियां बना दी हैं। ‘गीता-रहस्य’ में तिलक महाराज ने इस बात की ओर ध्यान खींचा है। गीता ग्रन्थ सर्वसाधारण व्यावहारिक लोगों के लिए है। यह उनका कथन मैं अक्षरशः सही मानता हूँ। भगवद्गीता सारे संसार के लिए है। परमार्थ-विषयक समस्त साधन प्रत्येक व्यावहारिक मनुष्य के लिए है। परमार्थ सिखाता है कि अपना व्यवहार शुद्ध और निर्मल रखकर मन का समाधान और शांति कैसे प्राप्त की जाये। व्यवहार शुद्ध कैसे किया जाये, यह सिखाने के लिए गीता है। जहां-जहाँ आप व्यवहार करते हैं, वहां-वहाँ गीता आती है। परन्तु वह आपको वहां-की-वहाँ रखना नहीं चाहती। आपका हाथ पकड़कर वह अंतिम मंजिल तक आपको ले जायेगी। एक प्रसिद्ध कहावत है कि पर्वत यदि मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद पर्वत के पास जायेगा। मुहम्मद को यह चिंता है कि मेरा जड़ पर्वत तक भी पहुँचे। पर्वत जड़ है, इसलिए मुहम्मद उसके आने की बाट नहीं जोहता रहेगा। यही बात गीता-ग्रन्थ की है। कैसा ही दीन-दुर्बल हो, गंवार-से गंवार हो, गीता उसके पास पहुँच जायेगी। परन्तु इसलिए नहीं कि उसे यथास्थान रहने दे, बल्कि इसलिए कि उसे हाथ पकड़कर आगे ले जाये, ऊपर उठाये। गीता चाहती है कि मनुष्य अपना व्यवहार शुद्ध करके परमोच्च स्थिति को प्राप्त करे। इसी के लिए गीता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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