तीसरा अध्याय
कर्मयोग
11. फलत्यागी को अनंत फल मिलता है
1. भाइयों, दूसरे अध्याय में हमने सारे जीवन-शास्त्र पर निगाह डाली। अब तीसरे अध्याय में इसी जीवन-शास्त्र का स्पष्टीकरण है। पहले हमने तत्त्वों को विचार किया, अब उनकी तफसील में जायेंगे। पिछले अध्याय में कर्मयोग-सम्बन्धी विवेचन किया था। कर्मयोग में महत्त्व की वस्तु है फल-त्याग। कर्मयोग में फल-त्याग तो है, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि फिर फल मिलता भी है या नहीं? अतः तीसरे अध्याय में कहते हैं कि कर्म फल को छोड़ने से कर्मयोगी उल्टा अनंतगुना फल प्राप्त करता है। यहाँ मुझे लक्ष्मी की कथा याद आती है। उसका था स्वयंवर। सारे देव-दानव बड़ी आशा बांधे आये थे। लक्ष्मी ने अपना प्रण पहले प्रकट नहीं किया था। सभा-मंडप में आकर वह बोली-‘‘मै उसी के गले में वरमाला डालूंगी, जिसे मेरी चाह न होगी।’’ वे सब तो लालच से आये थे। लक्ष्मी निःस्पृह वर खोजने निकल पड़ी। शेषनाग पर शांत भाव से लेटी हुई भगवान विष्णु की मूर्ति उसे दिखायी दी। उनके गले में वरमाला डालकर वह अब तक उनके चरण दबाती हुई बैठी ही है। न मागे तयाची रमा होय दासी- 'जो नहीं चाहता, उसकी रमा दासी बनती है।' यही तो खूबी है। 2. साधारण मनुष्य अपने फल के आसपास बाड़ लगाता है। पर इससे मिलने वाला अनंत फल वह खो बैठता है। सांसारिक मनुष्य अपार कर्म करके अल्प फल प्राप्त करता है; पर कर्मयोगी थोड़ा-सा करके भी अनंतगुना प्राप्त करता है। यह फर्क सिर्फ एक भावना के कारण होता है। टॉलस्टॉय ने एक जगह लिखा है- "लोग ईसामसीह के त्याग की बहुत स्तुति करते हैं। परन्तु ये संसारी जीव तो रोज न जाने अपना कितना खून सुखाते हैं, दौड़-धूप करते हैं! पूरे दो गधों का बोझ अपनी पीठ पर लादकर चक्कर काटने वाले ये संसारी जीव, इन्हें ईसा से कितना गुना ज्यादा कष्ट, कितनी ज्यादा इनकी दुर्गति! यदि ये इनसे आधे भी कष्ट भगवान के लिए उठायें, तो सचमुच ईसा से भी बढ़ जायेंगे।" 3. संसारी मनुष्य की तपस्या सचमुच बड़ी होती है, परन्तु वह होती है क्षुद्र फलों के खातिर। जैसी वासना, वैसा फल। अपनी चीज की जो कीमत हम आंकते हैं, उससे ज्यादा कीमत संसार में नहीं आंकी जाती। सुदामा चिउड़ा लेकर भगवान के पास गये। उस मुठ्ठी भर चिउड़े की कीमत एक धेला भी शायद न हो, परन्तु सुदामा को वे अनमोल मालूम होते थे; क्योंकि उनमें भक्तिभाव था। वे अभिमंत्रित थे। उनके कण-कण में भावना भरी थी। चीज भले ही क्षुद्र क्यों न हो, मंत्र से उसका मोल, उसका सामर्थ्य बढ़ जाता है। नोट का वजन भला कितना होगा? उसे सुलगायें, तो एक बूंद पानी भी शायद ही गरम हो! लेकिन उस पर मुहर लगी रहती है। उसी से उसकी कीमत होती है। कर्मयोग में यही सारी खूबी है कर्म को नोट ही समझो। भावना रूपी मुहर की कीमत है, कर्मरूपी कागज के टुकड़े की नहीं। एक तरह से यह मैं मूर्ति-पूजा का ही रहस्य बतला रहा हूँ। मूर्ति-पूजा की कल्पना में बड़ा सौंदर्य है। इस मूर्ति को कौन तोड़ सकता है ? यह मूर्ति पहले एक टुकड़ा ही तो थी। मैंने इसमें प्राण डाला। अपनी भावना डाली। भला इस भावना के कोई टुकड़े कर सकता है ? टुकड़े पत्थर के हो सकते हैं, भावना के नहीं। जब में अपनी भावना मूर्ति में से निकाल लूंगा, तब वहाँ पत्थर बच रहेगा और तभी उसके टुकड़े हो सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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