विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टदश अध्याययया धर्ममधर्म च कार्यं चाकार्यमेव च। पार्थ! जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथावत् नहीं जानता, अधूरा जानता है, वह बुद्धि राजसी है। अब तामसी बुद्धि का स्वरूप देखें- अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। पार्थ! तमोगुण से ढँकी हुई जो बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है तथा सम्पूर्ण हितों को विपरीत ही देखती है, वह बुद्धि तामसी है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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