श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-हित की रस-रूपता
भगवान जिस प्रेमरस का आस्वाद करते हैं उसमें उनकी रति के कारण, कार्य और संचारी भाव अपने स्वभाविक रूप को छोड़कर रस के कारण नहीं बनते। अतएव भगवत-प्रेम-रस भरत की परिपाटी से निष्पन्न होने वाले काव्यरस से सर्वथा भिन्न होता है। भगवान को यदि काव्यरस का आलंबन बनाया भी जाय तब भी वह रस सामाजिकनिष्ठ ही रहेगा, इस विशेष प्रकार की योजना के कारण भगवदनिष्ठ नहीं बन सकता। भगवान की संपूर्ण लीला लोकवत होती है, उनको रसानुभव भी स्वाभविक रीति से होता है। नंदगृह में लोक के साधारण बालक की भाँति वे माता की वत्सल रति के कारण बनते हैं। लोक में बालक जिस वात्सल्य रस का विषय बनता है वह काव्यरस की भाँति कृत्रिम नहीं होता। इसी भाँति अन्य रसों के संबंध में समझना चाहिये। लोक के रस[1] एवं भगवदरस में केवल इतनी ही समानता है कि दोनों सहज हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कोई समानता नहीं है। भगवान के रसास्वादन का अर्थ यह है कि रस ही रसास्वादन में प्रवृत्त है, और यह स्थिति सर्वथा अलौकिक है। लोक की संकुचित सीमाओं एवं अंतरायों के कारण यहाँ रस[2] का स्फुरण क्षणिक एवं अनित्य होता है। काव्यरस अपनी कृत्रिमता के कारण अनित्य है और लोक का रस[3] अपनी परिस्थिति के कारण। भगवद-प्रेमरस कृत्रिमता एवं परिमितता दोनों से मुक्त है अतएव वह नित्य है। उसका स्फुरण शाश्वत है। शाश्वत रसस्फुरण जैसी परमोज्जवल, मांगलिक एवं आनदंमयी स्थिति दूसरी नहीं हो सकती, इसलिये भगवत्प्रेम-रस को भगवत्स्वरूप माना जाता है। अपरिमित, अलौकिक एवं अन्तराय-शून्य होने के कारण यह रस सरस हृदय में स्वयं विभावित हो जाता है और भगवन्निष्ठ रहता हुआ भी भक्त-निष्ठ बना रहता है। भक्त और भगवान के बीच एक मधुर आत्मीय संबंध स्थापित रहता है जिसके कारण वह अपने-पराये का भेद भूलकर भगवत्प्रेम रस का निर्विघ्न आस्वाद कर सकता है। काव्य के क्षेत्र में इस संबंध की कल्पना नहीं की जा सकती अतएव वहाँ कवि-प्रतिभाजनित ‘विभावन’ व्यापार की आवश्यकता होती है। पंडितराज जगन्नाथ से पूर्व आलंकारिकों ने रस को ‘रसो वै स:’ श्रुति से प्रमाणित करने की चेष्टा नहीं की है। उनकी दृष्टि में इन दोनों रसों का भेद स्पष्ट था और उन्होंने काव्यरस के लिये ककेवल ‘सहृदय’ को प्रमाण माना है। सर्वप्रथम पंडितराज ने काव्यरस को उपर्युक्त श्रुति से प्रमाणित करना चाहा है। उनके पूर्व गौड़ीय गोस्वामीगण भगवद्-प्रेमरस का व्याख्यान काव्यरस की परिपाटी से कर चुके थे और स्पष्ट है कि उनसे ही प्रभावित होकर पंडितराज ने दोनों रसों को एक करने का प्रयास किया था। उनके बाद के काव्य रसज्ञों ने जहाँ-तहाँ उनका पदानुकरण किया है किन्तु इस संबंध में प्राचीनों का मत ही ठीक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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