हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 42

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमेय

श्री हित हरिवंश ने अपनी वाणी में हित के इस नित्‍य प्रगट-विहार का ही गान किया है। नित्‍य प्रगट होने का अर्थ नित्‍य वर्तमान होना है और ‘हित चतुरासी’ के अनेक पद 'आजु'[1] से आरम्भ होते हैं।

‘आजु प्रभात लता मंदिर में सुख बरतस अति हरषि युगल वर’
‘आजु नीकी बनी श्री राधिका नागरी’
’आजु अति राजत दंपति भोर’
‘आजु बन नीकौ रास बनायौ’।

इत्‍यादि।

इसी प्रकार लीला-रस में विभोर होकर उन्‍होंने जहाँ हित-दंपति को आशीष दी, वह यह कह कर दी है कि वृन्‍दावन-भूतल पर यह जोड़ी संतत अविचल बनी रहै।

‘हित हरिवंश असीस देत मुख चिरजीवहु भूतल यह जोरी’[2]

प्रेम-स्‍वरूप भगवान की लीला अनादि एवं अनंत बतलाई गई है। भगवत-स्‍वरूप प्रेम की, हित की, लीला भी अनादि है किन्‍तु इसका आदि[3] नित्‍य होने के कारण यह अनादि है। प्रेम नित्‍य–नूतन तत्‍व है। नित्‍य-नूतन का अर्थ नित्‍य नूतन आरंभ होना है। प्रेम क्षण-क्षण में नूतन रूप से प्रगट होता रहता है, इसलिये इसको प्रेम-प्रवाह कहा जाता है। प्रवाह में जैसे नवीन जल आकर धारा को अविच्छिन्‍न बनाये रखता है उसी प्रकार प्रेम का स्‍वरूप नित्‍य–नवीन प्रागट्यों के द्वारा बनता है। नित्‍य नवीन प्रगट होने वाले प्रेम की लीला, इस नवीन प्रगट होने वाले प्रेम की लीला, इस नवीन अर्थ में ही, अनादि कही जाती है। क्‍योंकि प्रत्‍येक नवीन-प्रागट्य के साथ नवीन लीला का आदि होता है और यह क्रम अनंत काल तक चलता रहता है।

इस नित्‍य-आरंभ के कारण नित्‍य-विहार में उस परम सौंदर्यं की अभिव्‍यक्ति होती है, जो नित्‍य-नूतन बन कर नित्‍य रमणीय बना रहता है। नित्‍य–नूतन हित के अद्वय-युगल-स्‍वरूप श्री नंदनंदन एवं वृषभानु-नंदिनी है। इनकी वर्षाकालीन सहज शोभा का गान करते हुए श्री हिताचार्य ने वर्णन किया है, ‘आज के नित्‍य-विहार में नया नेह है, नयारंग है, नयारस है, नये श्‍याम सुन्‍दर है और नई वृषभानु नंदिनी है। अजा नया पीताम्‍बर है, नई चूनरी है एवं नई बूँदों से गोरी भींग रही हैं।’

भयौ नेह, नवरंग, नयौ रस, नवल श्‍याम, वृषभान-किशोरी।
नव पीतांवर, नवल चूनरी, नई-नई बूँदन भींजत गोरी।।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्तमान-काल-वाची-शब्द
  2. चतुरासी- 54
  3. आरम्‍भ
  4. हित चतु. 54

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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